काव्य :
स्वार्थ अवगुण कहां छोड़ पाता कभी'
विधा-गजल
त्याग सबको कहां है लुभाता कभी।
स्वार्थ अवगुण कहां छोड़ पाता कभी।
प्रेम का है दिखावा बड़ा ही सरल,
पर समझ प्रेम को कौन पाता कभी।
प्रेम वरदान है प्रेम भगवान है,
कौन दिल में इसे पर बसाता कभी।
स्वयं को सुख दिलाये भला शख्स वह,
कौन पर शूल पर के हटाता कभी।
भूल जाता मनुज दुख पराया समझ,
गैर का कौन दुख है मिटाता कभी।
है महा धर्म परहित मनुज के लिए,
कौन कर्तव्य पर यह निभाता कभी।
स्वार्थ के कूप में डूब कर फिर मनुज,
है कहां शांति सुख चैन पाता कभी।
दृव्य 'दीपक' यहां कोई कितना गढ़े,
दृव्य आनंद चिर कब कमाता कभी।
- रजनीश मिश्र 'दीपक' खुटार शाहजहांपुर उप्र