काव्य :
कुण्डलिया छंद
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पिया मिलन की आस में, मनवा यूँ बेचैन।
बाट निहारें स्वाति की, ज्यों चातक के नैन।।
ज्यों चातक के नैन, नहीं जल दूजा चाहें।
तैसे कामिनि आज, ताकती पिय की राहें।।
कहे 'नवल' कविराय, दुसह यह पीड़ा मन की।
पावस ऋतु की रैन, व्यग्रता पिया मिलन की।।
- डॉ नवीन जोशी 'नवल'
दिल्ली
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