[प्रसंगवश – 12 जुलाई: फिल्म अभिनेता राजेंद्र कुमार पुण्यतिथि]
सपनों का सादा राजकुमार, जिसने दिलों में घर नहीं, घरों में दिल बसा दिए
[पद्मश्री से परदे की चमक तक: राजेंद्र कुमार का प्रेरणादायक युग]
राजेंद्र कुमार, जिनकी मुस्कान में सादगी का सागर लहराता था और आंखों में प्रेम व करुणा की अथाह गहराई झलकती थी, हिंदी सिनेमा के उन चमकते सितारों में से थे, जिन्होंने न केवल परदे पर जादू बिखेरा, बल्कि लाखों दिलों में अपनी अमर छाप छोड़ी। ‘जुबली कुमार’ के नाम से मशहूर इस अभिनेता ने उस युग को जीवंत किया, जब सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि भावनाओं का सजीव संसार था। उनकी पुण्यतिथि (12 जुलाई) पर उनकी सिनेमाई यात्रा को याद करना, उन सपनों, संघर्षों और प्रेम को श्रद्धांजलि देना है, जिन्हें उन्होंने अपनी फिल्मों में रंगों और भावों से साकार किया। उनके किरदार हर आम इंसान की कहानी को गूंजते थे—एक बेटा, एक भाई, एक प्रेमी, जो अपने सपनों और कर्तव्यों के बीच जीवन का संगीत रचता था।
20 जुलाई 1929 को अविभाजित भारत के सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मे राजेंद्र कुमार तनेजा का बचपन विभाजन की त्रासदी की आग में तपा। 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद उनका परिवार मुंबई आया, जहां उन्होंने शरणार्थी जीवन की कठिनाइयों के बीच नई राह तलाशी। उनके लिए सिनेमा ग्लैमर की चकाचौंध नहीं, बल्कि एक ऐसा मंच था, जहां मेहनत और प्रतिभा से सपनों को पंख लगाए जा सकते थे। उनकी सिनेमाई यात्रा सहायक निर्देशक के रूप में शुरू हुई, जहां मशहूर निर्देशक ए.आर. करदार के सान्निध्य में उन्होंने सिनेमा की रचनात्मक और तकनीकी बारीकियां आत्मसात कीं। यहीं से अभिनय की दुनिया ने उन्हें अपनी ओर खींचा। 1955 में फिल्म ‘वचन’ से बतौर नायक उनकी पहली चमक दिखी, मगर 1957 में ‘मदर इंडिया’ ने उन्हें रातोंरात आकाश का तारा बना दिया। नरगिस के बेटे की भूमिका में उनके संवेदनशील और जीवंत अभिनय ने दर्शकों के दिलों को झकझोर दिया। यह फिल्म ऑस्कर के लिए नामांकित होने वाली पहली भारतीय फिल्म थी, जिसने राजेंद्र कुमार को सिनेमा जगत का चमकता सितारा बना दिया।
1960 का दशक राजेंद्र कुमार का स्वर्णिम युग था, जब उनकी फिल्मों ने न केवल सफलता के नए शिखर छुए, बल्कि हिंदी सिनेमा को भावनाओं का एक ऐसा आकाश दिया, जो आज भी दर्शकों के दिलों में गूंजता है। ‘धूल का फूल’ (1959), ‘गहरा दाग’ (1963), ‘मेरे मेहबूब’ (1963), ‘संगम’ (1964), ‘आरजू’ (1965), ‘सूरज’ (1966), ‘आये दिन बहार के’ (1966), ‘हमराज’ (1967) और ‘तलाश’ (1969) जैसी फिल्मों ने उन्हें ‘जुबली कुमार’ का ताज पहनाया। उनकी लगातार छह-सात फिल्मों ने सिल्वर जुबली (25 सप्ताह तक सिनेमाघरों में निरंतर प्रदर्शन) का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाया, जो उस दौर में एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी। ‘धूल का फूल’ में उन्होंने सामाजिक कलंक और मानवीय संवेदनाओं को ऐसी गहराई से उकेरा कि दर्शक भावनाओं के सागर में डूब गए, वहीं ‘संगम’ में प्रेम त्रिकोण की जटिल भावनाओं को उन्होंने इतनी संजीदगी से जीवंत किया कि हर दृश्य आत्मा को छू गया। ‘संगम’ में राज कपूर और वैजयंतीमाला के साथ उनकी तिकड़ी ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया, और यह फिल्म न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी गूंजी, जिसे 1965 में फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामांकन मिला।
राजेंद्र कुमार की अभिनय शैली का जादू उनकी सादगी और स्वाभाविकता में छिपा था। वे नाटकीयता के परे, अपने किरदारों में ऐसी सच्चाई और जीवंतता लाते थे कि दर्शक उनकी हर भावना से गहरे जुड़ जाते थे। उनकी आंखें मानो कहानियां कहती थीं—प्रेम की मासूम चमक, दुख की गहन छाया और करुणा का अथाह समंदर उनमें साफ झलकता था। वैजयंतीमाला, साधना, माला सिन्हा और सायरा बानो जैसी अभिनेत्रियों के साथ उनकी रोमांटिक जोड़ी ने परदे पर जादू बिखेरा। उनके गीत, जैसे ‘बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है’ (‘सूरज’), ‘मेरे मेहबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम’ (‘मेरे मेहबूब’), ‘ये मेला दिलों का’ (‘हमराज’) और ‘दुनिया करें सवाल’ (‘संगम’) आज भी उतने ही मधुर और कालजयी हैं। मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर जैसे महान गायकों की आवाज में ये गीत राजेंद्र कुमार की स्क्रीन उपस्थिति के साथ मिलकर एक ऐसी सिम्फनी रचते थे, जो दिलों को बांध लेती थी। उनकी फिल्मों का संगीत हिंदी सिनेमा के स्वर्ण युग का एक अमर रत्न बन गया, जो समय की सीमाओं को पार कर आज भी गूंजता है।
1970 के दशक में राजेंद्र कुमार ने अभिनय की चमक के साथ-साथ फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का परचम लहराया। उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी ‘ज्योति स्टूडियो’ स्थापित की और 1981 में अपने बेटे कुमार गौरव को ‘लव स्टोरी’ के जरिए सिनेमाई दुनिया में पेश किया। यह फिल्म उस दौर की सबसे बड़ी हिट्स में से एक बनी, जिसने युवा प्रेम और जोश की नई परिभाषा गढ़ी। इसके गीत, जैसे ‘ये वादियां, ये फिजाएं’, आज भी दिलों में ताजगी और रोमांच जगाते हैं। इसके बाद 1986 में उन्होंने ‘नाम’ का निर्माण किया, जिसने संजय दत्त के करियर को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। निर्माता के रूप में उनकी दूरदृष्टि, रचनात्मकता और जोखिम उठाने की हिम्मत ने उन्हें सिनेमा के बहुआयामी रत्न के रूप में स्थापित किया। उनकी फिल्में न केवल व्यावसायिक रूप से कामयाब रहीं, बल्कि अपनी गहन कहानियों और कालजयी संगीत के लिए भी अमर हो गईं।
राजेंद्र कुमार का व्यक्तित्व उनकी फिल्मों की तरह ही सरल, सौम्य और आत्मीय था। सिनेमा जगत में उन्हें ‘गुड मैन’ के नाम से जाना जाता था, जो उनकी उदारता और मानवीयता का प्रतीक था। 1969 में भारत सरकार ने उनके सिनेमाई योगदान के लिए उन्हें ‘पद्म श्री’ से नवाजा। भले ही उन्हें पुरस्कारों की लंबी फेहरिस्त न मिली, लेकिन दर्शकों का असीम प्यार और सम्मान उनके लिए सबसे बड़ा रत्न था। 12 जुलाई 1999 को मुंबई में उनका निधन हुआ, और उनकी अंतिम यात्रा में सैकड़ों प्रशंसकों और सिनेमा जगत के दिग्गजों की उपस्थिति उनकी अपार लोकप्रियता और सम्मान का जीवंत प्रमाण थी। उनके निधन ने हिंदी सिनेमा के एक स्वर्णिम युग का अंत किया, मगर उनकी फिल्में, उनके गीत और उनका अभिनय आज भी लाखों दिलों में जीवंत हैं, समय की सीमाओं को पार करते हुए।
राजेंद्र कुमार का योगदान केवल उनकी फिल्मों की संख्या या व्यावसायिक सफलता तक सीमित नहीं, बल्कि उन्होंने हिंदी सिनेमा में मध्यमवर्गीय नायक की छवि को एक नया, अमर आयाम दिया। उनकी फिल्में भारतीय समाज के सपनों, प्रेम और संघर्ष की जीवंत गाथाएं थीं, जो हर दिल को छूती थीं। उनके संवाद, जैसे ‘संगम’ का “हर इंसान के दो चेहरे होते हैं,” आज भी लोगों की जुबान पर गूंजते हैं, मानो समय के साथ उनकी गहराई और प्रासंगिकता बढ़ती ही गई हो। उनकी सादगी, भावनात्मक गहराई और मानवीय संवेदनशीलता ने उन्हें न केवल परदे का सितारा, बल्कि दर्शकों के दिलों का सच्चा नायक बनाया।
आज, उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना, उस सिनेमाई जादू को फिर से जीवंत करना है, जो उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से रचा। उनकी मुस्कान में बसी सादगी, उनकी आंखों में झलकती करुणा और उनकी फिल्मों का अमर जादू आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में एक अनमोल राग की तरह बस्ता है। उनकी जीवन गाथा हमें सिखाती है कि मेहनत, लगन और सच्चाई के बल पर कोई भी अपने सपनों को हकीकत का रंग दे सकता है। ‘जुबली कुमार’ की यह विरासत समय की सारी सीमाओं को लांघ चुकी है, क्योंकि उनकी फिल्में और उनका व्यक्तित्व कभी पुराने नहीं होंगे—वे अनंत काल तक प्रेरणा और प्रेम का प्रतीक बने रहेंगे।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)