काव्य :
गुज़रता साल
भीडभाड़ के टूटे फूटे
फूटपाथ पर
रस्सी पर चलती लड़की
करतब दिखाती साहसी
सपाट चेहरा कृष्ण काया
ट्रैफिक में फंसे दर्शक
पैदल चलने के लिए
जमीन ही नहीं
नन्हे हाथों में थाली
चाहकर भी उस तक
पहुंच नहीं पाते
सिक्के देनेवाले हाथ
अवाक रह देखती हूँ
अशिक्षा और गरीबी
जिससे जन्में
करतब के खेल
कबतक लड़की करतब
दिखा पायेगी
बिना डायेटिंग, बिना जिम
हल्की काया के साथ
पेट की आग बुझाने के लिए
हवा में लहराती लडकी
हिचकौले खाती लड़की
साल गुजर रहा है
जैसे पहले गुजरे थे
अगले साल
फिर
अगले साल
अब तो फूटपाथ भी नहीं बचेगा
इस शहर में तब
कहाँ करतब दिखाएंगी लडकी
साल गुजर रहा है..
– लतिका ‘नीर’, पुणे (महाराष्ट्र)
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काव्य
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संपादक श्री. देवेंद्र सोनी जी,
ReplyDeleteमेरी कविता प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद