प्रकृति विरोधी सोच से त्रासदी का खतरा
- मुकेश तिवारी ,स्वतंत्र पत्रकार
त्रासदी का खतरा सिर्फ विद्युत परियोजना से ही नहीं, बल्कि प्रकृति विरोधी विकास की विचारधारा से भी है केदारनाथ की ऊपर 2013 में आई अकाल्पनिक बाढ़ से हमने सबक नहीं सीखा और पुन वहां भारी भरकम सीमा कंक्रीट का ढांचा खड़ा कर दिया ,उस अकल्पनीय बाढ़ ने केदारनाथ सहित समूची मंदाकिनी घाटी से मानव द्वारा अतिक्रमित नदी तट क्षेत्र को पूरी तरह साफ कर दिया था, उसके बाद भूस्खलन संवेदनशीलता की अनदेखी ने चारधाम आलवेदर मार्ग के नाम पर 625 किलोमीटर लंबे सड़क नेटवर्क से तकरीबन 40 हजार से अधिक पेड़ और झाड़ियों सहित पहाड़ों को काट काटकर भूस्खलन को जगा दिया गया,
मनुष्य शानदार जीवन जीने की इच्छा रखता है, और शानदार जीवनयापन विकास के बिना किसी भी सूरत में संभव नहीं है, आर्थिक, सामाजिक और भौतिक हर तरह के विकास का अंतिम लक्ष्य मानव जीवन का स्तर सुधारना और जनसामान्य के लिए विकल्पों में इजाफा करना है, यह लक्ष्य हमारे लिए प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से ही हासिल होना संभव है, और इसे प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठा कर ही हासिल किया जाना चाहिए, यदि लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रकृति से खिलवाड़ किया गया तो उत्तराखंड के जोशीमठ जैसी त्रासदी झेलना ही पड़ेगी, धौलीगंगा पर बनने वाली इस विधुत परियोजना के लिए एन टी पी सी ने उस पहाड़ को नीचे से छेद डाला जिस पर जोशी मठ शहर बसा हुआ है, हमारे तमाम भूगर्भशास्त्री इस बात की बार बार चेतावनी दे रहे थे कि ऐसा करने के दुष्परिणाम भुगतने होंगे, लेकिन विकास की राजनीति करने वाली सरकारों और दिल्ली, लखनऊ जैसे शहरी जीवन के अभिलाषी लोगों ने इस पर गौर करना जरूरी नहीं समझा,
काबिले गौर है कि जोशी मठ में प्रकृति के साथ खिलवाड़ का पहला मामला नहीं है, धौलीगंगा ऋषिकेश में बन रहे विधुत परियोजना को भी बाढ़ में बहाकर चेतावनी दे दी थी कि अतिसंवेदनशील हिमालय क्षेत्र में प्रकृति के साथ खिलवाड़ करोगे तो यही हश्र होगा, गौरतलब है कि उस बाढ़ में 250से अधिक लोग मारे गए और अरबों रुपए मूल्य की शासकीय और गैर शासकीय संपत्ति पूरी तरह नष्ट हो गई, इस पूरे घटनाक्रम पर गहराई से गौर करें तो हाड़कंपाऊ सर्दी के दौरान अचानक हिमालय पर बाढ़ का आना चेतावनी ही थी.दिलचस्प है कि इसके पहले 2013 में केदार नाथ के ऊपर बाढ़ आ गई जिसमें हजारों तीर्थयात्री अपनी जान से हाथ धो बैठे थे, बाढ़ के दौरान खफा मंदाकिनी ने सारे अतिक्रमण बिना किसी हिचकिचाहट के जमींदोज कर दिए थे , दुखद यह है कि न तो हम और न ही हमारे द्वारा चुनी गई सरकारें प्रकृति की चेतावनी को समझ पाई . चौंकाने वाली बात है कि 1970के दशक में जोशीमठ में भू-धंसाव का मामला सामने आया था ,तब एस सी मिश्र समिति ने इस क्षेत्र में भारी निमार्ण न करने की सिफारिश की थी.लेकिन सभी सरकारों ने समिति की सिफारिशों को अहमियत नहीं दी , इसका ही दुष्परिणाम हमारे सामने है.
यह भी कड़वा सच है हमें शानदार जीवन जीने के लिए बिजली, पानी, सड़क चिकित्सा सुविधा के साथ अपने दिन बहुरने के लिए बेहतर संसाधन भी चाहिए,हम उक्त संसाधन प्रकृति से मांगा कर हासिल कर सकते हैं लेकिन प्रकृति के साथ खिलवाड़ करके हरगिज़ नहीं , अपने स्वार्थ की खातिर प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने की प्रवृत्ति आत्मघाती है, जमीनी सच्चाई यह है कि आज हमें जिस विज्ञान प्रौद्योगिकी का गुरुर है वह भी इसी प्रकृति के अनगिनत रहस्यों में से बहुत थोड़ी हकीकत का दस्तावेजीकरण भर है,
नैसर्गिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक सभी हिमालयी प्रदेश भूकंप और भूस्खलन की दृष्टि से अति संवेदनशील है, हिमालयी क्षेत्र विशेषकर उत्तराखंड में मौजूद विकास नीति और उच्च हिमालयी क्षेत्र में नदियों पर विशाल जल विद्युत परियोजनाओं का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए,दरअसल में उत्तराखंड में वर्तमान में टिहरी बांध परियोजना सहित 4183.10 मेगावाट क्षमता की 42छोटी बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं संचालित हो रही है,जिनका वार्षिक उत्पादन क्षमता से आधे से भी कम है, इस तरह राज्य क्षेत्र में 2535.8मेगावाट क्षमता की 3से 300मेगावाट
तक की 27 परियोजनाएं विकसित की जा रही है, उधर प्रदेश में एनटीपीसी जैसे केंद्रीय उपक्रमों द्वारा 5,801मेगावाट क्षमता की 22 परियोजनाएं विकसित की जा रही है, जिसमें उत्तर काशी जिले की सबसे छोटी जाड़ गंगा 50 मेगावाट और 1000 मेगावाट की सबसे बड़ी टिहरी पंंप स्टोरेज परियोजना है,
गौरतलब है कि निजी क्षेत्र द्वारा 1360.6मेगावाट की 33परियोजनाए विकसित की जा रही है, जिनमें 340मेगावाॅट की सबसे बड़ी उथिग परियोजना है.
वैसे वर्तमान में जो दशा जोशीमठ की है,वैसी ही स्थिति 2003में वरुणावत पर्वत के दरकने से उत्तराकाशी के समक्ष उत्पन्न हो चुकी है, भू-धंसाव के कारण संकटग्रस्त जोशी मठ के सामने स्थित चाईगाव में बिल्कुल वैसे ही हालात हैं, यह हालत दुखद ही नहीं चिंताजनक भी है, हकीकत यह है कि चाईगांव के धसने की अहम वजह उसके नीचे बनी विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना की सुरंग के निमार्ण को माना जा रहा है, उक्त परियोजना का लामबगढ स्थित बैराज एवलाॅन्च प्रभावित इलाके में होने के साथ ही 2013की त्रासदी में नष्ट हो चुका था,
भू-धंसाव के कारण जोशीमठ के अस्तित्व पर खड़े खतरे ने एक बार पुनः हिमालय में बड़े जलाशय वाले बांधों और रन आफ़ द रिवर यानी सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं की उपादेयता के सवाल को विमर्श के केंद्र में ला दिया है.
ऋषि गंगा परियोजना का भी चिपको आंदोलन की जन्मस्थली के लोगों और चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा निरंतर विरोध किया जाता रहा . उत्तरकाशी जिले की असीगंगा में बने विद्युत प्रोजेक्टों का 2010 की बाढ़ में यही हाल हुआ था, जो हाल वर्तमान में जोशीमठ का है ,वही हाल रैनी गांव का 2021 में हो चुका है, टिहरी गढ़वाल में फलिडा परियोजना को भी भारी जन आक्रोश के बावजूद आगे बढ़ाया गया, अलकनंदा पर 330 मेगावाट की श्रीनगर परियोजना का असर भी चौरास समेत आसपास की बस्तियों पर देखा गया,
वर्तमान में खतरा सिर्फ विद्युत परियोजनाओं से नहीं, बल्कि प्रकृति विरोधी विकास की सोच से भी है, केदारनाथ के ऊपर 2013 में आई अकल्पनीय बाढ़ से हमने सबक नहीं सीखा और वहां पुनः भारी भरकम सीमेंट कंक्रीट का ढांचा खड़ा कर दिया, उस बाढ़ ने केदारनाथ समेत समूची मंदाकिनी घाटी से मानव द्वारा अतिक्रमित नदी तट क्षेत्र को पूरी तरह साफ करके रख दिया था, इसके पश्चात भूखलन संवेदनशीलता की अनदेखी कर चार धाम ऑल वेदर रोड के नाम पर 825 किलोमीटर लंबी सड़क नेटवर्क से 40हजार से अधिक पेड़ और अनगिनत झाड़ियों सहित पहाड़ों को काट काट कर पुराने सुषुप्त भूस्खलनों को जगा दिया गया जबकि चिपको के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट के आग्रह पर इसरो के नेतृत्व में भारत सरकार ने एक दर्जन विशेषज्ञ संस्थाओं ने इसी संपूर्ण चार धाम यात्रा मार्ग पर लैंड स्लाइड जेनरेशन एटलस तैयार कर भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील दर्जनों स्थान चिन्हित किए थे , गौरतलब बात है कि ऋषिकेश ,बदरीनाथ मार्ग सिर्फ तीर्थाटन और पर्यटन के लिए ही नहीं बल्कि सांमरिक दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण है ,
लेखक के विषय में --मुकेश तिवारी
(मध्यप्रदेश शासन से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं ) 8878172777
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