लघुकथा
गर्म चाय
' मनु, मनु यह ले तिल के लड्डू और बैठ जा, चाय भी पी गरम गरम।' मनु जैसे ही सुबह सात बजे अपनी ड्यूटी पे पहुंचा उसे देखते ही 304 नंबर वाली आंटी ने मनु से कहा। अभी चाय खत्म ही हुई थी कि 308 वाली आंटी मनु, मनु करती आई और एक लिफाफा थमाते हुए बोली,' चाय बना रही हूं, जल्दी से आजा।' 308 वाली आंटी की चाय पी के , मनु ने अभी थोड़ा झाड़ू भी नहीं लगाया था कि एक साथ तीन आंटियां दिखाई दी और मनु के हाथ में खिचड़ी, रेवड़ी , मूंगफली आदि देकर कहने लगी,' आज चाय पीने आ जाना, जब भी मन करे।' यह सिलसिला 11:00 बजे तक चलता रहा। आखिर 310 वाली मोना आंटी आई कॉफी के मग के साथ, बोली, ' मनु, ले कॉफी पी, आराम से , बाद में मग पकड़ा देना।'
खा खाकर और दो-तीन चाय पी कर उसका पेट फटने को हो रहा था। बाकी कई जगह तो उसने खाने का सामान तो ले लिया परन्तु चाय पीने को मना कर दिया। पर कॉफी वह छोड़ ही नहीं पा रहा था। मोना आंटी से मग पकड़ कर वह सोचने लगा, प्रभु जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है। कहां कोहरे और हाड़ कंपाती ठंड से भरे दिनों में वो एक कप चाय को तरसता था। कोई दरवाजा या खिड़की खुलती तो वह झाड़ू मारते मारते इस उम्मीद में उधर देखने लग जाता था कि शायद कोई आंटी चाय का कप पकड़ा दे। पर नजरें खाली ही लौट आती थी। हाथ को कॉफी की तपिश महसूस हुई तो उसने कॉफी का घूंट भरा और आसमान की तरफ देखकर बुदबुदाया,' प्रभु या तो सारे कोहरे से भरे दिनों को मकर सक्रांति में बदल दे या मुझे कोई ऐसा जादू का बर्तन दे दे जिसमें मैं कम से कम एक महीने की गर्म चाय स्टोर कर सकूं।'
- प्रो अंजना गर्ग, म द वि रोहतक