काव्य :
मेरे पापा
कंधों पर बैठ के मेला घुमायें बहुत,
मेरे जिद के आगे सर झुकाए बहुत,
क्योंकि डैड नहीं पापा है मेरे।
हर संडे स्कूटी पर चक्कर लगाए बहुत,
हां-हां जानती हूं,सबसे सुना है,
बड़े होकर कोई नखरे नहीं उठाएगा,
पर क्या करूं आदत सी हो गई हैं,
कि पापा की तरह कोई और भी मुझे हंसाएगा।
वह सिक्कों वाली गुल्लक से लेकर मेरा येलो पिगी बैंक,
वह पापा का हर एक सरप्राइज,हर एक प्रैंक,
पढ़ाई हो या खेल-कूद,
सब कुछ किया फॉर माय फर्स्ट रैंक।
सुबह 6 बजे वह शंख की आवाज,
वह दूध का मग और दो पल खास,
1800 किलोमीटर दूर होकर भी ख्याल ऐसा ही रखना,
जैसे हो सबसे पास।
जानती हूं फोन उठाकर कॉल नहीं करेंगे,
लेकिन मम्मी के पीछे बैठकर,
वीडियो कॉल पर सारी बातें सुनेंगे।
सिर पर गाड़ी,घर और पता नहीं क्या-क्या लोन है,
पर मैं तो रौब में बोलती हूं,
तू जानता नहीं मेरा बाप (पापा) कौन है।
- अनन्या पाण्डेय ,प्रयागराज
(प्रावी)