काव्य :
अपमानित हो रही गरीबी
लाचारी की कसीं बेड़ियाॅं
दायित्वों के पाॅंव में ।
सुख- वैभव की कटी पतंगें
यहाॅं अभावी डोर से
गूॅंज रहा है लोभ गगन में
अपनेपन के छोर से
बेकारी है बनी समस्या
आज हमारे गाॅंव में ।
उम्मीदों के महानगर में
और बुरे हालात हैं
कष्ट- पीर की मिलीं शिलाऍं
घातों पर आघात हैं
अपमानित हो रही गरीबी
चमक -दमक की ठाॅंव में।
रिक्त उदर कर रहे बगावत
द्वंदों के टकराव हैं
राजभवन से मिलते आए
जन-जन को नित घाव हैं
हार गए हैं अपना सब कुछ
यहाॅं एक ही दाॅंव में।
- उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
'कुमुद निवास',बरेली
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