यात्राएं मन के भीतर शायद बहुत भीतर यात्रा करती है बस हम उन यात्राओं में साथ नही होते, जिम्मेदारी के तहत हम बहुत जगह थमते रहते है
#थोड़ा_है_थोड़े_की_ज़रुरत_है
बस इसी चक्कर मे हम जिंदगी को गति देते रहते है
औऱ एक नया संघर्ष जोड़ कर जिंदगी को औऱ कंप्लीकेटेड करते चले जाते है।
यात्राएं तब भी यंत्रवत चलती रहती है, हम अनिभिज्ञ नही होते उन यात्राओं से बस उन यात्राओं को विचारों के झंझावतों से मन की रेतीली ज़मी पर रोकते रहते है।खुरदुरा होता अस्तित्व नमी की तरफ बढ़ ही नही पाता,वजह बाह्य परिस्थितियों से अश्रुधार स्वतः ही सूखकर चेहरे पर एक रेखा छोड़ देती है।
हमारी यात्रायें वही पर एक अल्पविराम लेकर फ़िर अंदर ही रेतीला समंदर छोड़ देती है।
मन के सैलाब जब नमी नही पाते भीतर सब अवरुद्ध हो जाता और उन्हीं अवरुद्ध जगह पर हमारी यात्राए एक विश्राम स्थल बना एक नया युद्ध क्षेत्र बना कर युद्ध करती रहती है।
भीतर बहुत भीतर यात्राएं निरन्तर चलती रहती है, और हमारे अंत होने तक चलती रहेंगी। बस मन मस्तिष्क और संघर्ष इनको गति देता रहता।
मृत्यु भी यात्राओं का अंत नही कर सकती।
- स्वरा सुरेखा अग्रवाल
उत्तरप्रदेश लखनऊ