कवि हृदय में बसंत…
द्वारा - लतिका जाधव, पुणे, महाराष्ट्र
संस्कृत महाकवि कालिदास कृत ‘ऋतुसंहारम्’ काव्य ग्रंथ में भारतीय छह ऋतुओं का रसपूर्ण वर्णन किया है। इस काव्य ग्रंथ के छठे सर्ग मे वह बसंत ऋतु के आगमन पर लिखते हैं,
“ द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं
स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः।
सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्यः
सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते।।२।।
हिंदी भावानुवाद – देखो प्रिये! बसंत के आते ही सब वृक्ष फूलों से लद गए हैं, जल में कमल खिल गए हैं, स्त्रियां मतवाली हो गई हैं, वायु में सुगंध आने लगी हैं, संध्याकाल सुखप्रद हो चली हैं और दिन लुभावने हो गए हैं। सचमुच सुंदर बसंत में सब कुछ सुहावना लगने लगता है।।२।।
महाकवि कालिदास जिस बसंत के आगमन का वर्णन करते हैं, उस काल को निश्चित करना चाहे तो हमें अंदाज़न 1500 साल पीछे जाना पड़ेगा। उन्होंने बसंत ऋतु के बारे में जो लिखा है, आज भी इस पृथ्वी पर हर वर्ष आनेवाला बसंत ऋतु वैसा ही प्रफुल्लित करता है, चैतन्य निर्माण करता है। बसंत ऋतु में चराचर जगत बदलने लगता है। जैसा कि वह लिखते हैं,
“आकम्पयन् कुसुमिताः सहकारशाखाः
विस्तारयन्परभूतस्य वचांसि दिक्षु।
वायुर्विवाति हृदयानि हरन्नराणां
नीहारपातविगमात्सुभगे वसन्ते
।।२४।।
हिंदी भावानुवाद – फूलों के साथ आमों की शाखाओं को हिलाता हुआ, दिशाओं में कोयलों की वाणियों को फैलाता हुआ, मनुष्यों के चित्तों को मुग्ध करता हुआ, तुषार के न पड़ने से सुंदर यह पवन बसंत में विशेषता से बह रहा है ।।२४।।
महाकवि कालिदास बसंत ऋतु का आगमन और सृष्टि का खिला हुआ आनंदित करता रूप वर्णित करते हैं। जो आज भी हमें वैसा ही दिखाई देता है। बसंत ऋतु का यह वर्णन संस्कृत भाषा में है, लेकिन यह वर्णन इस भूमि से जुड़ा तथा कण कण में होनेवाले हर्षोल्लास का वर्णन है। इसलिए महाकवि कालिदास का यह काव्य ग्रंथ आज भी महत्वपूर्ण लगता है।
अब यदि हम इस सदी के कवियों के हृदय में बसा बसंत देखेंगे तो वह हर कवि के अंतरंग में बसा है, वह मुक्त रूप में आता है, वह उनकी कल्पनाओं को नया रूप देता है।
जैसे कि,
बसंत में(कविता)
सिर से पैर तक
फूल फूल हो गई उसकी देह
नाचते नाचते हवा का
बसंती नाच
हर्ष का ढिंढोरा
पीटते पीटते, हरहराते रहे
काल के कगार पर खड़े पेड़
तरंगित
उफनाती - गाती रही
धूप में धुपाई नदी
काव्यातुर भाव से
(कवि - केदारनाथ अग्रवाल)
बसंत ऋतु कवि के हृदय में इस तरह बसा है कि वह प्रिये का आगमन भी कभी कभी बसंत का रूप मानता है,
जैसे कि,
"लौट आओ
जैसे लौटती है सुबह
अंधेरी रात के बाद
जैसे सूरज लौट आता है
सर्द और कठुआए मौसम में
जैसे जनवरी के बाद फरवरी लौटती है
पूस - माघ के बाद फागुन
वैसे ही वसंत बन कर लौटो तुम!
(कवि - राकेशरेणु)
बसंत ऋतु कवियों की सृष्टि का, उनकी शब्दावली का अहम हिस्सा हैं।
जीवन की उकताहट, आतुरता, वियोग और बैचेनी से मुक्ति देनेवाला बसंत प्रेम की धारा का निर्माता बन जाता है। यह भी सही है, बसंत का आगमन सृष्टि भी तीव्रता से करती है, इसलिए जीवन की इस तीव्र दाहकता से मुक्ति के लिए कवि बसंत के प्रतीक को अपनी कविता में अधिक महत्व देते हैं।
जैसे कि,
"मेरे लू भरे दिनों की दोपहर में
तुम दिसंबर की ढलती सांझ सी उतरती हो
और मेरी ऋतु वसंत में बदल जाती है..."
(कवि - अनिल करमेले)
इस तरह कवियों की कल्पनाओं में बसा बसंत, व्याकुलता के साथ जीवन की संपन्नता का निर्देश भी करता है।
बसंत ऋतु सृष्टि का मधुर संगीत है। जो सदियों से था, आज भी हमारे जीवन में बसा है, नवचेतना का प्रतीक बसंत हमारी सभी भाषाओं और संस्कृति का अलंकार है। जनजीवन के अंतरंग में प्रेम प्रवाहित कर, सृष्टि को हराभरा करनेवाले बसंत ऋतु के आगमन पर सभी को बधाइयाँ!
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साभार १. ऋतुसंहारम् - महाकवि कालिदास, डॉ. राजकुमार उपाध्याय 'मणि', चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी
२. दस्तक संवाद समूह , भोपाल
संपादक श्री. देवेंद्र भाई सोनी जी, आलेख प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!🙏
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