काव्य :
खुले बांध
वह पति है
प्रेमी नहीं
उसकी हर बात अच्छी नहीं लगती
वो सपनों में नहीं आता
उसका कोई प्यार भरा वाक्य
असहज नहीं कर जाता
उस पर शासन चलाने का मन होता है
उसे अपनी दिशा में ही रोक देते हैं
वह अपने रास्ते से कभी हटे नहीं
कुछ भी अलग करे नहीं
सारा कुछ
फौरन ही पता लग जाता है
क्यों मन चाहता है
वह वही करें जो मैं कहूं
इसी में प्रेम कहीं खो जाता है
बुझ जाता है
थक जाता है
लेकिन पति-पत्नी का रिश्ता
जीवित रहता है
वह प्रेमी है
एक घर में रहने को रूद्ध है
कटिबद्ध है
बस अभद्र नहीं
चाहे तो भी छूट नहीं सकने की
मजबूरी है
कोई दूरी नहीं है
यह बंदिश
धीरे-धीरे रस सुखा देती है
वैसे ही जैसे पौधे मरते नहीं
मुरझाते भी नहीं
खिलते भी नहीं
झुराते भी नहीं
आसपास से खुशबुएं
दूर हो जाती हैं
एक सदा कभी कभी आती है
पर उसे सच मानने
सुनने के लिए
सुबह से
शाम हो जाती है
दिन बीतते हैं
जवानी बिना दस्तक दिए
सूख जाती है
बुढ़ापे में
एक दूसरे का सहारा तो बनते हैं
प्रेम फिर भी नहीं करते
अधूरे रह जाते हैं
इतने साल साथ थे
तो भी कुछ पूर्णता की पहुंच से
बहुत दूर हो जाते हैं
- आर एस माथुर , इंदौर
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