व्यंग्य को लेकर समकालीन चिंता
विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
व्यंग्य साहित्य और समाज की एक सशक्त विधा रही है, जिसका मूल उद्देश्य केवल हास्य उत्पन्न करना नहीं, बल्कि समाज की विसंगतियों और विकृतियों पर प्रहार कर परिवर्तन की चिंगारी जगाना भी है। परंतु वर्तमान समय में व्यंग्य का स्वरूप बदलता दिख रहा है।
इस के पीछे कई कारण हैं। पहला, व्यंग्य की सटीकता और प्रभावशीलता लेखकीय अध्ययन, भाषा पर पकड़ और गंभीर सामाजिक सरोकारों से व्यंग्यकार दूर हो रहे हैं। वे निहित स्वार्थों, छपास , गुटबाजी , मठाधीश बनने की होड करते दिख रहे है। दूसरा, सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्मों ने व्यंग्य को तत्कालिक प्रतिक्रिया और त्वरित मनोरंजन तक सीमित कर दिया है, जिससे इसकी गहराई और उद्देश्य कमजोर पड़ने लगे हैं।
तीसरा, व्यंग्य की धार तब कुंद हो जाती है जब यह पूर्वाग्रहों और व्यक्तिगत आक्रोश का शिकार हो जाता है। सही व्यंग्य वह होता है जो सत्य की खोज करता है और समाज को आईना दिखाने की हिम्मत रखता है, न कि केवल किसी को नीचा दिखाने या तात्कालिक लोकप्रियता पाने का साधन बनता है।
यदि व्यंग्य को अपनी असली शक्ति बनाए रखनी है, तो लेखकों को इसकी जिम्मेदारी समझनी होगी। उन्हें सामाजिक सरोकारों से जुड़कर सटीक और विचारशील व्यंग्य रचना करनी होगी, ताकि यह अपनी मूल भूमिका निभा सके ।
— विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
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