प्रसंगवश – 23 मई: विश्व कछुआ दिवस
समय के साक्षी कछुए: टिकाऊ प्रकृति की टूटती कड़ी
[कछुआ: प्रकृति की मूक चेतना और हमारा मौन उत्तरदायित्व]
निःशब्द, धीमी चाल और सदियों का साक्षी — जब कोई प्राणी हमारी धरती पर प्रकृति का सबसे शांत, लेकिन सबसे मज़बूत प्रहरी बनकर खड़ा हो, तो उसका महत्व केवल जैवविविधता तक सीमित नहीं रह जाता, वह हमारी संस्कृति, चेतना और पर्यावरण की आत्मा बन जाता है। कछुआ, जो समय की रेत पर अपने धैर्य और दीर्घायु के पदचिह्न छोड़ता आया है, आज ख़तरे में है। 23 मई को मनाया जाने वाला विश्व कछुआ दिवस केवल एक दिन नहीं, बल्कि एक पुकार है — उस मौन जीवन के लिए, जिसे हमने वर्षों तक नज़रअंदाज़ किया, और जो आज हमसे बचाव की गुहार कर रहा है।
विश्व कछुआ दिवस की शुरुआत वर्ष 2000 में “अमेरिकन टॉरटॉयस रेस्क्यू” नामक एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा की गई थी। इसका उद्देश्य था कछुओं और कछुए की विविध प्रजातियों के संरक्षण और उनके महत्व को वैश्विक स्तर पर जागरूकता के साथ जोड़ना। यह प्रयास अब अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बन चुका है, जिसमें विभिन्न देशों के वैज्ञानिक, संरक्षणकर्मी, विद्यार्थी, शिक्षक और आम नागरिक मिलकर भागीदारी निभा रहे हैं।
कछुए धरती पर लगभग 22 करोड़ वर्षों से अस्तित्व में हैं — यानी वे डायनासोर से भी पहले आए और आज भी जीवित हैं। उन्होंने बर्फीले युगों, महाविनाशों और भूगर्भीय परिवर्तनों को झेला है। उनके अस्तित्व की स्थिरता उनकी “धीमे लेकिन स्थायी” जीवनशैली का प्रमाण है। लेकिन यह दुखद है कि आज, जिन संकटों से वे जूझ रहे हैं, वे किसी प्राकृतिक आपदा के नहीं, बल्कि मानवीय लालच और लापरवाही के परिणाम हैं।
कछुए की भूमिका केवल पारिस्थितिकी तंत्र तक सीमित नहीं है; वे लोककथाओं, संस्कृति और आध्यात्मिक मान्यताओं में भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। भारत, चीन, अफ्रीका और अमेरिका की पुरानी कथाओं में कछुए को पृथ्वी का वाहक, दीर्घायु और ज्ञान का प्रतीक माना गया है। भारतीय पुराणों में कूर्म अवतार को विष्णु के रूप में पूजा जाता है, जो समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत को अपने पीठ पर टिकाकर सृष्टि के संतुलन में सहायक बना। लेकिन आज, उसी कछुए को जल स्रोतों से उठाकर बाजारों में बेचा जा रहा है — कभी खाने के लिए, कभी सजावट के लिए, तो कभी औषधि के नाम पर।
विश्व में ज्ञात 350 से अधिक कछुआ प्रजातियों में से लगभग 60% संकटग्रस्त या विलुप्ति की कगार पर हैं। भारत में “इंडियन स्टार टर्टल,” “रेड क्राउन रूफ टर्टल,” और “नॉरदर्न रिवर टेरपिन” जैसी दुर्लभ प्रजातियाँ गंभीर खतरे में हैं। समुद्री कछुए जैसे “ऑलिव रिडली” जो हजारों किलोमीटर तैरकर अंडे देने भारत के ओडिशा तट पर आते हैं, उन्हें मछली पकड़ने के जाल, रोशनी के प्रदूषण और मानव हस्तक्षेप से भारी खतरा है। इन मूक प्राणियों के लिए संकट के प्रमुख कारणों में हैं – प्लास्टिक प्रदूषण (अक्सर वे प्लास्टिक को जेलीफिश समझकर खा जाते हैं), समुद्र तटों का अतिक्रमण, अवैध व्यापार, सड़क दुर्घटनाएं, अंधविश्वास आधारित शिकार, और जलवायु परिवर्तन। अंडे सेने की प्रक्रिया तापमान पर निर्भर होती है, जिससे मादा और नर कछुओं का अनुपात बिगड़ रहा है, जो भविष्य की संतति के लिए खतरा है।
कछुए पारिस्थितिकी के संतुलन में अदृश्य लेकिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मरे हुए जीवों को खाकर जल स्रोतों की सफाई करते हैं, समुद्री घास को नियंत्रित रूप से चरकर समुद्री पारिस्थितिकी को टिकाऊ बनाए रखते हैं, और उनके द्वारा खुदी गई मिट्टी की बिलों में अनेक छोटे जीवों को सुरक्षा मिलती है। वे पारिस्थितिकी के “की-स्टोन स्पीशीज़” माने जाते हैं, जिनके लुप्त होने से पूरी पारिस्थितिकी प्रणाली असंतुलित हो सकती है।
आज विश्व भर में कछुओं के संरक्षण के लिए अनेक उपाय किए जा रहे हैं। भारत में ओडिशा का गाहिरमाथा तट “ऑलिव रिडली” समुद्री कछुओं के लिए विश्व का सबसे बड़ा घोंसला स्थल है, जहाँ हज़ारों स्वयंसेवी और वन अधिकारी मिलकर हर वर्ष कछुओं के अंडों की रक्षा करते हैं। तकनीक का उपयोग बढ़ा है — सैटेलाइट ट्रैकिंग से उनके प्रवास को समझा जा रहा है, कृत्रिम हैचरी में अंडों को सुरक्षित इनक्यूबेट किया जा रहा है, और बच्चों को जागरूक करने के लिए स्कूलों में “टर्टल क्लब” बनाए जा रहे हैं। लेकिन केवल संगठनों के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। आम नागरिक की भूमिका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम यदि समुद्र तटों पर कूड़ा-कचरा न फैलाएँ, कछुओं को छेड़ें नहीं, उनके घोंसलों को नष्ट न करें, ऑनलाइन कछुओं की खरीद-बिक्री की शिकायत दर्ज कराएँ, और स्थानीय स्तर पर जागरूकता फैलाएँ — तो यह छोटा सा योगदान भी एक बड़े परिवर्तन की शुरुआत बन सकता है।
कछुआ हमें यह सिखाता है कि दौड़ना जरूरी नहीं, टिके रहना ज़्यादा जरूरी है। यह भी कि मौन, शक्ति की एक अलग भाषा है — जो शब्दों से नहीं, बल्कि कर्मों से बोलती है। उनकी धीमी चाल में हमें भविष्य की गूंज सुनाई देती है — यदि हम उन्हें बचा पाए, तो खुद को भी बचा पाएंगे। इसलिए आज विश्व कछुआ दिवस केवल एक पर्यावरण दिवस नहीं, बल्कि एक आत्मचिंतन का क्षण है — हम किस ओर बढ़ रहे हैं, और हम क्या खो रहे हैं? यह वह समय है जब हमें प्रकृति के साथ पुनः जुड़ने की आवश्यकता है — न केवल जंगलों या पहाड़ों के साथ, बल्कि उन छोटे, अदृश्य जीवों के साथ जो इस ग्रह की आत्मा हैं।
कछुओं के संरक्षण को एक अभियान, एक आदत, और एक सामाजिक जिम्मेदारी बनाएं। अपने बच्चों को सिखाएँ कि प्रकृति केवल देखने की वस्तु नहीं, जीने की शैली है। जब अगली बार हम किसी समुद्र तट पर जाएँ, किसी तालाब के किनारे बैठें, या किसी दुकान में कछुए के खोल से बनी वस्तु देखें — तो एक बार रुकें, सोचें और चुनें… कि हम इस धरती के संरक्षक बनना चाहते हैं या शोषक? क्योंकि यह सिर्फ एक जीव की लड़ाई नहीं है — यह धरती की आत्मा को बचाने का संघर्ष है। और इस संघर्ष में, हमें मूक कछुए की तरह नहीं, जागरूक मानव की तरह आगे बढ़ना होगा — समझदारी से, साहस से, और सामूहिक संकल्प से।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)