काव्य :
माँ का आँचल हरा, भरा हो..
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इंजी. अरुण कुमार जैन
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बात पुरानी हम छोटे थे,
नदिया, नालों में पानी था, हरियाली थी चारों ओर,
वन, उपवन, उद्यान हरे थे,
खेतों में सुखदायी भोर.
वृक्ष घने थे, ताल भरे थे, और कुओं में था पानी,
प्रेम, नेह, विश्वास भरे सब,
नहीं धरा का था सानी.
पानी का सम्मान बहुत था, वृक्ष देवता होते थे,
पीपल, बरगद और घास की, पूजा हम सब करते थे.
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बदला समय,अस्था टूटी,
वन, उपवन को नष्ट किया,
वृक्ष काटकर ठूँठ बनाये,
हर प्राणी को त्रस्त किया.
नदिया और सरोवर सूखे,
भू जल नीचे, नित जाता,
कंकरीट के घने हैं जंगल,
तापमान नित बढ़ जाता.
धरा तप्त हो सतत जलेगी,
बंजर होगा,जग सारा,
पानी को जन जग तरसेंगे,
हर मन होगा, अँधियारा.
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अब भी चेतो, संभलो भाई, वृक्ष लगाओ हर शुभ दिन,
जल ही जीवन,अरु जल कंचन, संरक्षण कर लो सब मिल.
सड़क, सरोवर, नदिया तीरे,
घर, उद्यान लगाएं मिल,
सारी धरती हरी भरी हो,
यत्न करें,हम सब हिल मिल,
हरेक कंठ की प्यास बुझेगी,
हर तन भोजन, घर होगा,
सुख, समृद्धि से हरा, भरा,
वसुधा का हर आँगन होगा.
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