काव्य :
झील के उस पार
पूर्ण समर्पण लेकर
साथ तेरे आई हूँ
छोड़कर अपना घर-
संसार तेरे साथ आई हूँ
हूँ तत्पर कांधे पर तेरे
रख कर हाथ
ले चल मेरे नाखुदा
झील के उस पार।
है उजालों में छिपा
अपना भी इक संसार
मुक्त समाजिक
प्रतिबंधों से
अपना प्रेमिल संसार
नई सुबह है,नया दिन
नया है अपना प्यार
आओ हम दोनों ही
चल दें
झील के उस पार।
बज रहा है धड़कनों में
इक अनोखा साज
साँसों की सरगम पर
भीग रहा मनः गात
मौसम में भी घुली हुई
अहसासों की खूशबू है
जबसे आया है
तेरे हाथों में मेरा हाथ
दामन उड़ाता पवन भी
कह रहा चलो न
झील के उस पार।
- डा.नीलम ,अजमेर
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