लघुकथा
नेपकिन
'बेटा शिवानी, वो नेपकिन पकड़ाना जरा, खत्म हो गए इस बास्केट में।' अनु ने अपनी बहू से कहा।
' छोड़ो न भाभी यह कपड़े वाले, रहने दे बेटा शिवानी, यह पेपर नेपकिन रखे हैं। यही ले लेते हैं।' अनु की ननद दीपिका ने पेपर नेपकिन उठाते हुए कहा।
' दीदी यह तो तब यूज करती हूं जब यह दोनों बास्केटस के नेपकिनस खत्म हो जाए या यह सूखे न हो।' अनु ने कपड़े के छोटे-छोटे नेपकिन वाली टोकरी रखते हुए कहा।
' तभी तो कहती हूं। क्या झंझट है इन कपड़े के नेपकिंस का। वाश करो, सुखाओ फिर तह लगा कर रखो। यह पेपर नेपकिन उठाओ, पोंछो और डालो डस्टबिन में। काम खत्म।'
' दीदी आप कह तो ठीक रही हो। यह आसान है उठाओ , पोंछो और फेंक दो, पर – – '
' पर क्या , फिर गलत क्या है?'
' गलत ही नहीं दीदी, बहुत गलत है यह। आप देखो जरा जरा सी बात पर हम चार-पांच पेपर नैपकिनस तो यूही पोंछ कर फेंक देते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं।' अनु की आवाज में थोड़ी उत्तेजना थी।
' हां तो, क्या हो जाता है? अगर दो चार नैपकिनस से हाथ पोंछ लिए, इतने तो महंगे भी नहीं आते जो तुम इतना हाय तौबा कर रही हो।'
' दीदी प्लीज, पहले सुनो। यह पेपर नेपकिन बनाने के लिए पेड़ काटने पड़ते हैं। पेड़ हम लगाते तो हैं नहीं ऊपर से इस तरह चीजों का फालतू का प्रयोग करके पेड़ों को और कम करते जा रहे हैं। फिर कहते हैं गर्मी बढ़ गई, वायु प्रदूषित हो गई, सांस लेने में दिक्कत हो रही है - ---- '
' बस अनु तूने तो मेरी आंखें खोल दी। इस तरफ न कभी ध्यान दिया, न सोचा। आज से मैं भी कपड़े के छोटे-छोटे नैपकिनस ही प्रयोग किया करूंगी।' दीपिका की आवाज में एक दृढ़ संकल्प झलक रहा था।
- डॉ अंजना गर्ग
म द वि रोहतक