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जनजातीय गर्जना का नाम, एक विचार, एक विद्रोह : धरती आबा बिरसा मुंडा - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी


 [प्रसंगवश – 09 जून: अमर शहीद बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि]

जनजातीय गर्जना का नाम, एक विचार, एक विद्रोह : धरती आबा बिरसा मुंडा

[अबुआ दिशोम रे अबुआ राज: आदिवासी अस्मिता की हुंकार]

जैसे जंगल की आग अनायास भड़क उठती है और विशाल वृक्षों को भी अपने आगोश में ले लेती है, वैसे ही एक साधारण आदिवासी बालक ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव को हिलाकर रख दिया। वह बालक था आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा — जंगल का शेर, जनजातीय चेतना का सूरज, और स्वतंत्रता की मशाल। उसका नाम न केवल इतिहास के पन्नों में, बल्कि हर उस दिल में अमर है जो अन्याय के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला जलाना चाहता है। बिरसा मुंडा एक व्यक्ति नहीं, एक तूफान थे, जो जंगलों की गोद से उठा और सत्ता के तख्तों को चुनौती दे गया। उनकी पुण्यतिथि, 9 जून, केवल एक तारीख नहीं, बल्कि उस अमर बलिदान का प्रतीक है, जिसने आदिवासी अस्मिता को नई रोशनी दी और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक अनछुआ अध्याय जोड़ा।

15 नवंबर 1875 को झारखंड के उलीहातु गाँव में मुंडा जनजाति के एक साधारण परिवार में जन्मे बिरसा का जीवन संघर्षों की भट्टी में तपा था। उनके पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातु ने उन्हें प्रकृति के प्रति प्रेम और संस्कारों की नींव दी। उस दौर में अंग्रेजी शासन ने आदिवासियों की दुनिया को उजाड़ दिया था। ज़मींदारी प्रथा ने उनकी पुश्तैनी जमीनें छीन लीं, जंगल जो उनकी आत्मा का हिस्सा थे, अंग्रेजों और जमींदारों के कब्जे में चले गए। ईसाई मिशनरियों ने उनकी सांस्कृतिक जड़ों पर प्रहार किया, और आदिवासियों को उनकी ही धरती पर पराधीन कर दिया गया। इन अंधेरी परिस्थितियों में बिरसा एक दीपक की तरह जले, जिन्होंने न केवल अपने समुदाय को रोशनी दिखाई, बल्कि शोषण की बेड़ियों को तोड़ने का संकल्प लिया।

बिरसा का बचपन जंगलों में बीता, जहाँ उन्होंने प्रकृति से जीने का हुनर सीखा और अन्याय को करीब से देखा। स्कूल की चारदीवारी में कुछ समय बिताने के बाद भी उनकी असली शिक्षा जंगलों की गोद में, अपने लोगों के दुख-दर्द को समझने में हुई। बिरसा ने देखा कि कैसे उनकी जनजाति को आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से कुचला जा रहा है। इस पीड़ा ने उनके भीतर एक क्रांतिकारी को जन्म दिया। उन्होंने सबसे पहले सामाजिक सुधार का बीड़ा उठाया। ‘बिरसाइत’ धर्म की स्थापना कर उन्होंने आदिवासियों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ा। वह एक आध्यात्मिक गुरु की तरह उभरे, जिन्होंने शराब, पशुबलि और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद की। लोग उन्हें “धरती आबा” कहकर पूजने लगे, क्योंकि वह न केवल उनके नेता थे, बल्कि उनके आत्मसम्मान का प्रतीक थे। बिरसाइत आंदोलन एक धार्मिक क्रांति से कहीं अधिक था—यह आदिवासियों के बीच स्वाभिमान और एकता की चिंगारी थी, जो जल्द ही विद्रोह की आग में बदल गई।

जब बिरसा ने देखा कि अंग्रेजी नीतियाँ और जमींदारों की लूट आदिवासियों के अस्तित्व को ही निगल रही हैं, तो उन्होंने तीर-कमान उठा लिया। 1895 में शुरू हुआ उनका ‘उलगुलान’—महाविद्रोह—एक ऐसी आंधी थी, जिसने झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ के जंगलों को अपने रंग में रंग दिया। “अबुआ दिशोम रे अबुआ राज” (हमारा देश, हमारा राज) का नारा उनकी हुंकार बन गया। बिरसा ने आदिवासियों को संगठित किया, उन्हें पारंपरिक हथियारों से लैस किया और अंग्रेजी शासन के खिलाफ खुली जंग छेड़ दी। उनके नेतृत्व में आदिवासियों ने पुलिस चौकियों, सरकारी दफ्तरों और जमींदारों की हवेलियों पर हमले किए। यह विद्रोह केवल जमीन और जंगल की रक्षा की लड़ाई नहीं थी, यह आदिवासी अस्मिता, सम्मान और स्वतंत्रता की ललकार थी। बिरसा एक योद्धा की तरह लड़े, जिनका हर तीर सत्ता के अहंकार को भेदता था।

अंग्रेजी हुकूमत के लिए बिरसा एक तूफान बन चुके थे, जिसे रोकना असंभव था। उनकी लोकप्रियता और प्रभाव ने ब्रिटिश शासन को बेचैन कर दिया। आखिरकार, 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। रांची जेल में उन्हें कैद किया गया, जहाँ 9 जून 1900 को मात्र 25 वर्ष की आयु में उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने इसे बीमारी से हुई मौत बताया, लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि यह एक सुनियोजित हत्या थी। बिरसा की मृत्यु भले ही शारीरिक रूप से हुई, लेकिन उनकी आत्मा आज भी हर उस संघर्ष में जीवित है, जो अन्याय के खिलाफ लड़ा जाता है।

बिरसा मुंडा एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा थे। वह जंगल के उस शेर की तरह थे, जिसका रुदन सत्ता के कानों में गूंजता था। उनकी स्मृति में रांची में “बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार” स्थापित किया गया, जहाँ वे अंतिम समय तक बंद रहे। 15 नवंबर को उनके जन्मदिन को “झारखंड स्थापना दिवस” और “जनजातीय गौरव दिवस” के रूप में मनाया जाता है। भारतीय संसद में उनकी मूर्ति इस बात का प्रतीक है कि भारत अपने इस वीर सपूत को कभी नहीं भूल सकता। उनकी प्रतिमाएँ और स्मारक देशभर में आदिवासी गौरव की कहानी कहते हैं। बिरसा केवल आदिवासियों के नायक नहीं थे, वह हर उस इंसान के प्रेरणास्रोत हैं, जो अपने हक के लिए लड़ना चाहता है।

बिरसा मुंडा का जीवन हमें सिखाता है कि साहस और समर्पण के आगे कोई सत्ता अडिग नहीं रह सकती। वह एक चट्टान की तरह थे, जो तूफानों में भी अडिग रही। वह एक नदी की तरह थे, जो रास्ते में आने वाली हर बाधा को पार करती चली गई। वह एक मशाल की तरह थे, जिसने अंधेरे में भी रास्ता दिखाया। 9 जून उनकी पुण्यतिथि हमें याद दिलाती है कि बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता। बिरसा का उलगुलान (महाविद्रोह) आज भी हर उस दिल में जल रहा है, जो अन्याय के खिलाफ लड़ने का साहस रखता है। उनकी आवाज आज भी गूंजती है—“धरती हमारी है, अधिकार हमारा है, और इसे छीनने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता।” बिरसा मुंडा का नाम एक उद्घोष है, एक प्रेरणा है, और एक ऐसी ज्वाला है, जो कभी बुझ नहीं सकती।

 -  प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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