काव्य :
प्रत्यय
हूँ सुबह की नींद,
ख्वाब से मिलकर
दिन सजाती रहती हूँ ,
तुम आगे बढ़ते
थकते - झुँझलाते
मैं छुट्टी, इतवार-सी
आती रहती हूँ
हूँ प्रत्यय सी
तुमसे अंत में जुड़कर
पूरन साक्षात्कार
कराती रहती हूँ।
तुम गीता गाकर
प्रेम पढ़ाकर लौट गए
मैं जोगन, सार सुनाने
संसार में आती रहती हूँ |
- जूही गुप्ते , पुणे
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