[प्रसंगवश – 13 जुलाई: बांग्ला भाषा की कवयित्री और उपन्यासकार आशापूर्णा देवी की पुण्यतिथि]
सृजन से स्वाधीनता तक: आशापूर्णा देवी की अनंत यात्रा
[स्मृतियों में जीवित: आशापूर्णा देवी की लेखनी का उजाला]
एक ऐसी लेखनी, जिसने कागज के पन्नों को नहीं, बल्कि समाज की गहरी चेतना को छुआ और उसे नई दिशा दी। आशापूर्णा देवी—वह साहित्यकार, जिनकी रचनाओं ने रूढ़ियों की बेड़ियों को तोड़ा और नारी की अस्मिता को एक नया आकाश प्रदान किया। 8 जनवरी 1909 को कोलकाता के एक परंपरागत मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मीं आशापूर्णा ने वह हासिल किया, जो उनके समय की सामाजिक व्यवस्था में असंभव-सा प्रतीत होता था। स्कूल की औपचारिक शिक्षा से वंचित होने के बावजूद, उनके घर का साहित्यिक और कलात्मक माहौल उनकी रचनात्मकता का पहला स्कूल बना। उनके पिता एक कुशल चित्रकार थे, तो मां बांग्ला साहित्य की गहरी प्रेमी। घर में नियमित आने वाली पत्रिकाएं—प्रवासी, भारतवर्ष, और सबूज पत्र—उनके लिए ज्ञान का अथाह सागर थीं। यहीं से उनकी लेखन यात्रा शुरू हुई, जिसने भारतीय साहित्य को एक ऐसी धरोहर दी, जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक, प्रेरक और जीवंत है।
मात्र तेरह वर्ष की उम्र में आशापूर्णा ने अपनी लेखनी से वह जादू रचा, जो समाज की बंदिशों को चुनौती देने वाली सशक्त आवाज बनकर उभरा। 1922 में उनकी पहली कविता बाइरेर डाक शिशु साथी पत्रिका में प्रकाशित हुई। यह केवल एक कविता नहीं थी, बल्कि एक ऐसी बालिका की हुंकार थी, जो रूढ़ियों के बीच अपनी पहचान तलाश रही थी। कविता की सीमाओं को लांघकर, उन्होंने जल्द ही कहानियों और उपन्यासों की दुनिया में कदम रखा। उनकी रचनाओं ने नारी जीवन के उन अनछुए पहलुओं को उजागर किया, जो अब तक साहित्य की परछाइयों में दबे थे। उनके पात्र काल्पनिक नहीं, बल्कि उस समाज के जीवंत चित्र थे, जहां स्त्रियां अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए मूक संघर्ष कर रही थीं। उनकी कहानियों में नारी की पीड़ा, आकांक्षाएं और विद्रोह इतनी गहराई और संवेदना के साथ उभरते थे कि पाठक स्वयं को उन पात्रों की यात्रा में खो देता था।
आशापूर्णा की अमर त्रयी—प्रथम प्रतिश्रुति, सुबर्णलता, और बकुल कथा—ने नारी चेतना को न केवल बांग्ला साहित्य, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य में नया आलोक प्रदान किया। प्रथम प्रतिश्रुति की नायिका सत्यवती एक ऐसी क्रांतिकारी स्त्री है, जो अपने युग की रूढ़ियों के खिलाफ न केवल स्वयं के लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का मार्ग प्रशस्त करती है। इस कृति ने 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1976 में ज्ञानपीठ पुरस्कार जीतकर इतिहास रचा, जिसने आशापूर्णा को यह सम्मान पाने वाली पहली महिला बनाया। यह पुरस्कार उनकी लेखन प्रतिभा का नहीं, बल्कि उन असंख्य स्त्रियों की अनसुनी आवाज का उत्सव था, जिन्हें समाज ने सदियों तक चुप रहने को मजबूर किया। सुबर्णलता में उन्होंने एक ऐसी मां की कहानी बुनी, जो अपनी बेटी को आत्मनिर्भरता और साहस का पाठ पढ़ाती है, जबकि बकुल कथा में पारिवारिक जीवन की जटिलताओं को उकेरते हुए उन्होंने प्रेम और कर्तव्य के बीच के नाजुक संतुलन को मार्मिक ढंग से चित्रित किया। यह त्रयी नारी के संघर्ष और उसकी असीम संभावनाओं का एक ऐसा दस्तावेज है, जो हर पाठक को झकझोरता और प्रेरित करता है।
आशापूर्णा की लेखनी का जादू उनकी सहजता और यथार्थ की गहरी समझ में छिपा था। उनकी भाषा में न तो अनावश्यक अलंकरण था, न ही बनावटी भावनाओं का प्रदर्शन। वे रोजमर्रा की जिंदगी को शब्दों में इस तरह पिरोती थीं कि हर कहानी पाठक के दिल में उतर जाती थी, मानो उनकी अपनी ही कथा हो। उनकी रचनाएं समाज की कुंठा, लोभ और पाखंड को बेनकाब करती थीं, फिर भी उनमें एक ऐसी आशावादी चमक थी, जो पाठकों को नई प्रेरणा देती थी। उनकी लेखनी में नारी का स्वातंत्र्य और गरिमा एक प्रखर दीप्ति के साथ उभरती थी, जो भारतीय परिप्रेक्ष्य में नारी के संघर्ष को जीवंत रूप देती थी। वे पाश्चात्य नारीवाद की राह नहीं अपनाती थीं, बल्कि भारतीय नारी की पीड़ा, आकांक्षाओं और विद्रोह को अपनी रचनाओं में सशक्त आवाज देती थीं। उनकी कहानियां नारी उत्पीड़न को उजागर करती थीं, मगर साथ ही एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की वकालत करती थीं, जहां नारी को समानता का अधिकार मिले—एक ऐसा सपना, जो उनकी लेखनी में जीवंत हो उठता था।
उनकी रचनाशीलता केवल वयस्क साहित्य तक सीमित नहीं रही। आशापूर्णा ने बच्चों के लिए भी ऐसी कहानियां और कविताएं रचीं, जो मनोरंजन के साथ-साथ जीवन मूल्यों और नैतिकता को सहजता से सिखाती थीं। उनका बाल साहित्य बच्चों की जिज्ञासा और संवेदनाओं को इस तरह उकेरता था कि वह हर आयु के पाठक को मोह लेता था। लगभग 225 कृतियों में 100 से अधिक उपन्यास और हजारों कहानियां समेटने वाली उनकी लेखनी का अनुवाद भारत की कई भाषाओं में हुआ, जो उनकी रचनाओं की सार्वभौमिकता और अपार लोकप्रियता का प्रमाण है। उनकी हर कृति एक ऐसी मशाल है, जो पाठकों को न केवल रोमांचित करती है, बल्कि समाज को बदलने का साहस भी देती है।
आशापूर्णा का जीवन स्वयं में एक प्रेरणा की मिसाल था। एक ओर वे गृहिणी के रूप में पारिवारिक दायित्व निभाती थीं, तो दूसरी ओर उनकी लेखनी समाज की चेतना को नई रोशनी दे रही थी। रूढ़िवादी समाज की कठोर बंदिशों में बंधकर भी उन्होंने अपनी आवाज को कभी दबने नहीं दिया। वे कहती थीं, “मैंने कोई आंदोलन नहीं चलाया, मैंने तो बस वही लिखा, जो मेरे आसपास सांस ले रहा था।” मगर उनकी रचनाओं ने बिना किसी शोर-शराबे के एक ऐसी मानसिक क्रांति रची, जिसने नारी चेतना को जागृत किया और सामाजिक परिवर्तन की मजबूत नींव रखी। उनकी कहानियां और उपन्यास न केवल साहित्य का हिस्सा थे, बल्कि एक ऐसी हुंकार थीं, जिसने लाखों नारियों को अपनी अस्मिता और स्वतंत्रता के लिए लड़ने का हौसला दिया।
उनके साहित्यिक योगदान को अनेक सम्मानों से नवाजा गया। 1954 में लीला पुरस्कार, 1964 में टैगोर पुरस्कार, 1966 में भूतान मोहिनी दासी स्वर्ण पदक और 1976 में पद्मश्री ने उनकी लेखनी की गरिमा को रेखांकित किया। 1994 में साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप ने उनके कृतित्व को और ऊंचा आसमान दिया। मगर इन सबसे परे, 1976 का ज्ञानपीठ पुरस्कार उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी, जो प्रथम प्रतिश्रुति के लिए मिला। यह सम्मान केवल उनकी लेखन कला का उत्सव नहीं था, बल्कि उस क्रांतिकारी विचारधारा का गौरव था, जिसने नारी के संघर्ष को साहित्य के मध्य मंच पर स्थापित किया।
13 जुलाई 1995 को आशापूर्णा देवी इस संसार से विदा हो गईं, मगर उनकी रचनाएं आज भी जीवंत हैं, मानो हर शब्द में उनकी आत्मा बसती हो। उनकी पुण्यतिथि हमें स्मरण कराती है कि साहित्य केवल कहानियों का संग्रह नहीं, बल्कि समाज को झकझोरकर बदलने की ताकत है। उनके शब्दों में वह जादुई शक्ति है, जो हर पीढ़ी को आत्मसम्मान, साहस और स्वप्नों की उड़ान सिखाती है। आशापूर्णा महज एक लेखिका नहीं थीं—वे एक विचार थीं, एक प्रेरणा थीं, जो हर उस इंसान को बल देती हैं, जो अपने सपनों के लिए जूझना चाहता है। उनकी रचनाएं सदा हमें सिखाती रहेंगी कि सच्चा साहित्य वही है, जो समाज का आईना बनकर उसकी कमियों को बेनकाब करे और परिवर्तन की राह रोशन करे।
--प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)