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जनसंख्या का बोझ या अवसर: हमें कैसी दुनिया बनानी है? -प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी


 [प्रसंगवश – 11 जुलाई: विश्व जनसंख्या दिवस]

जनसंख्या का बोझ या अवसर: हमें कैसी दुनिया बनानी है?

[विश्व जनसंख्या दिवस: आँकड़ों से आगे सोचने का समय]

         जब एक माँ अपनी गोद में भूख से तड़पते बच्चे को सुलाने की नाकाम कोशिश करती है, जब एक बेरोज़गार युवा हाथों में डिग्री लेकर भी दर-दर रोज़गार ढूँढता है, और जब किसी बेटी का सपना समय से पहले टूट जाता है, तब हमें समझना होगा कि बढ़ती जनसंख्या केवल आँकड़ों का बोझ नहीं, बल्कि अनगिनत टूटती उम्मीदों का दर्द है। यही वजह है कि हर साल 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है, ताकि हम यह सोचें कि हम अपने समाज और आने वाली पीढ़ियों को कैसा भविष्य सौंप रहे हैं। यह दिन केवल जागरूकता का नहीं, बल्कि एक सामूहिक संकल्प का अवसर है, जो हमें संसाधनों, अवसरों और सम्मान के साथ एक संतुलित दुनिया बनाने की ओर प्रेरित करता है।

वर्ष 1987 में जब विश्व की जनसंख्या ने 5 अरब का आंकड़ा पार किया, तब संयुक्त राष्ट्र ने इसे एक ऐतिहासिक लेकिन चिंताजनक क्षण माना। यह वह समय था जब अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के परिणामों को गंभीरता से समझने की जरूरत महसूस हुई। उसी वर्ष से 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। तब से लेकर आज तक, यह चुनौती और जटिल हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र के नवीनतम अनुमानों (2024) के अनुसार, विश्व की जनसंख्या 8.1 अरब को पार कर चुकी है। इसमें से लगभग 25% लोग, यानी करीब 2 अरब लोग, गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहे हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट (2023) बताती है कि वैश्विक स्तर पर 9.2% लोग प्रतिदिन 1.90 डॉलर से भी कम आय पर गुजारा करते हैं। यह आँकड़ा हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारी प्रगति वास्तव में समावेशी है?

भारत इस वैश्विक चुनौती के केंद्र में है। 2023 में भारत ने चीन को पीछे छोड़ते हुए विश्व का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने का गौरव हासिल किया, और आज हमारी जनसंख्या 142 करोड़ से अधिक हो चुकी है। यह हमारे युवाओं की अपार ऊर्जा का प्रतीक है, लेकिन साथ ही यह एक कठोर सत्य भी सामने लाता है। नीति आयोग की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 19 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5, 2020-21) के आँकड़े बताते हैं कि 60% से अधिक महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं, और ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 23% महिलाओं को ही सुरक्षित मातृत्व और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हैं। ये आँकड़े न केवल स्वास्थ्य सेवाओं की कमी को उजागर करते हैं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानता को भी रेखांकित करते हैं।

विश्व जनसंख्या दिवस 2025 का थीम—“युवा लोगों को एक निष्पक्ष और आशापूर्ण दुनिया में अपने मनचाहे परिवार बनाने के लिए सशक्त बनाना”—इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है। यह थीम न केवल परिवार नियोजन को बढ़ावा देती है, बल्कि यह भी जोर देती है कि हर युवा को अपने भविष्य के बारे में स्वतंत्र और सूचित निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए। यह केवल गर्भनिरोधकों तक पहुँच की बात नहीं है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सामाजिक सम्मान जैसे अवसरों की उपलब्धता की बात है। जब एक युवा को यह भरोसा होता है कि वह अपने और अपने परिवार के लिए एक बेहतर भविष्य बना सकता है, तभी वह छोटे और स्वस्थ परिवार की दिशा में सोच सकता है।

बढ़ती जनसंख्या के दुष्परिणाम हमारे चारों ओर स्पष्ट दिखाई देते हैं। शहरों में बढ़ती झुग्गियाँ, ट्रैफिक जाम, अस्पतालों में लंबी कतारें, घटती कृषि भूमि, और प्रदूषित हवा-पानी—ये सभी जनसंख्या के अनियंत्रित दबाव के परिणाम हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट (2023) के अनुसार, हर साल 30 लाख से अधिक बच्चे उन कारणों से मर जाते हैं, जिन्हें रोका जा सकता था—जैसे कुपोषण, अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ, और असुरक्षित पेयजल। भारत में भी स्थिति चिंताजनक है। पर्यावरण मंत्रालय की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 60% से अधिक शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर डब्ल्यूएचओ के मानकों से कई गुना अधिक है। यह सब हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारी धरती इतनी बड़ी आबादी का बोझ सहन कर पाएगी?

जनसंख्या का सवाल केवल संसाधनों की कमी का नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता का भी है। जब एक बेटी को अपनी मर्जी से शादी या मातृत्व का निर्णय लेने की आजादी नहीं मिलती, तो यह केवल उसका निजी नुकसान नहीं, बल्कि पूरे समाज का नुकसान है। यूनिसेफ़  की एक रिपोर्ट (2022) बताती है कि जिन देशों में महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बढ़ती है, वहाँ प्रजनन दर में स्वाभाविक रूप से कमी आती है। भारत में भी यह देखा गया है कि साक्षरता दर में 10% की वृद्धि से परिवार का औसत आकार 2 बच्चों तक सीमित हो सकता है। यह साफ़ करता है कि शिक्षा और जागरूकता ही वह कुंजी हैं, जो जनसंख्या नियंत्रण को मजबूरी के बजाय एक सशक्त विकल्प बना सकती हैं।

भारत सरकार ने इस दिशा में कई प्रयास किए हैं। मिशन परिवार विकास, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, पोषण अभियान, और आशा कार्यकर्ताओं के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य और परिवार नियोजन सेवाएँ पहुँचाई जा रही हैं। इसके बावजूद, सामाजिक रूढ़ियाँ, लैंगिक असमानता, और जागरूकता की कमी इन प्रयासों को पूर्ण रूप से सफल होने से रोक रही हैं। उदाहरण के लिए, एनएफएचएस -5 के आँकड़े बताते हैं कि भारत में केवल 12% पुरुष ही परिवार नियोजन के लिए गर्भनिरोधक उपायों का उपयोग करते हैं, जबकि यह जिम्मेदारी अक्सर महिलाओं पर ही डाल दी जाती है। यह दर्शाता है कि परिवार नियोजन को सामाजिक स्तर पर एक साझा जिम्मेदारी के रूप में अपनाने की जरूरत है।

युवाओं को यह समझाने की आवश्यकता है कि छोटा परिवार उनकी मजबूरी नहीं, बल्कि उनकी ताकत है। छोटा परिवार न केवल संसाधनों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित करता है, बल्कि बच्चों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, और अवसर भी प्रदान करता है। बेटियों को यह सिखाना होगा कि उनकी शिक्षा और आत्मनिर्भरता ही उनके सपनों की नींव है। बेटों को यह समझाना होगा कि परिवार नियोजन में उनकी भागीदारी न केवल उनकी जिम्मेदारी है, बल्कि एक प्रगतिशील समाज की पहचान भी है। साथ ही, हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि परिवार नियोजन को केवल गर्भनिरोध तक सीमित न रखा जाए। यह एक सम्मानजनक और गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, और आत्मसम्मान शामिल हैं।

विश्व जनसंख्या दिवस 2025 का थीम हमें यह याद दिलाता है कि युवा पीढ़ी के हाथों में केवल उनकी अपनी किस्मत नहीं, बल्कि पूरी सभ्यता का भविष्य है। यदि हम इस युवा शक्ति को शिक्षा, स्वास्थ्य, और अवसरों से सशक्त करेंगे, तो भारत न केवल जनसंख्या के आँकड़ों में, बल्कि प्रगति और समृद्धि के पायदान पर भी शीर्ष पर होगा। यह समय केवल चिंतन का नहीं, बल्कि ठोस कदम उठाने का है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हर बच्चे को एक ऐसा जीवन मिले, जिसमें वह सम्मान, शिक्षा, और स्वास्थ्य के साथ अपने सपनों को साकार कर सके।

आज जब हम विश्व जनसंख्या दिवस मना रहे हैं, तो यह क्षण केवल आँकड़ों पर चर्चा करने का नहीं, बल्कि एक गहरे आत्मनिरीक्षण का है। हमें यह पूछना होगा कि क्या हम हर बच्चे को एक ऐसी दुनिया देना चाहते हैं, जहाँ उसके सपनों को पंख मिलें? या हम चाहेंगे कि हमारी लापरवाही की कीमत हमारी आने वाली पीढ़ियाँ चुकाएँ? यह दिन हमें यह संकल्प लेने का अवसर देता है कि हम हर युवा को उसकी पसंद और सम्मान का अधिकार देंगे। हम परिवार नियोजन को केवल नारे तक सीमित नहीं रखेंगे, बल्कि इसे हर परिवार की जिंदगी का हक बनाएँगे। यही वह सच्ची शुरुआत होगी, जो भारत को न केवल एक जनसंख्या-प्रधान देश, बल्कि एक प्रगतिशील और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाएगी। यह हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, और आने वाली संतानों के प्रति हमारा सबसे पवित्र वचन है।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी 

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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