व्यंग्य का बदलता स्वर
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
प्रबुद्ध व्यंग्यकार एवं समीक्षक
भोपाल
व्यंग्य भारतीय साहित्य की वह धारा है, जो समय की करवट के साथ निरंतर रूप और रंग बदलती रही है। यह कोई संयोग नहीं कि व्यंग्य की परंपरा कबीर जैसे संत कवियों से मुखर होती है, जिन्होंने समाज की विसंगतियों, धार्मिक पाखंड और आडंबर पर अपने चुटीले, सीधे लेकिन तीखे शब्दों से वार किया। कबीर का व्यंग्य लोक का व्यंग्य था । जहाँ ‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय’ जैसे दोहे आज भी धार्मिक बाह्याडंबर पर करारा तमाचा हैं। यह व्यंग्य आत्मशुद्धि का साधन था, समाज को आईना दिखाने का एक मार्मिक और साहसी प्रयास बना।
कबीर का व्यंग्य जहाँ आत्मानुभूति और संत परंपरा से उपजा था, वहीं आधुनिक व्यंग्य ने धीरे धीरे अपने स्वरूप में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के नए आयाम जोड़े। इस विकासक्रम में हरिशंकर परसाई का योगदान मौलिक और मील का पत्थर है। परसाई ने व्यंग्य को एक सजग नागरिक की भाषा दी । सत्ता, प्रशासन, नैतिक पतन और मध्यमवर्गीय ढोंग पर उन्होंने जिस गंभीर हास्य मिश्रण के साथ व्यंग्य का प्रयोग किया, वह व्यंग्य लेखन को महज़ हास्य नहीं रहने देता । उन्होंने व्यंग्य को साहित्य के प्रतिरोधात्मक सामाजिक हस्तक्षेप में बदल दिया। उनकी रचनाएँ ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’, ‘विकास के बदले घोटाले’ या ‘राजनीति का अपराधीकरण’ जैसे विषयों को लेकर लिखी गई व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ आज भी प्रासंगिक हैं।
काका हाथरसी का व्यंग्य एक अलग दिशा में गया। उन्होंने हास्य को काव्यात्मक जामा पहनाया और चुटीली पद्यात्मक शैली में सामाजिक बुराइयों, नेताओं की दोहरी ज़ुबान और मानवीय मूर्खताओं पर ऐसा प्रहार किया, जो आम जन तक तुरंत पहुँच सके। काका का व्यंग्य मंच का व्यंग्य था । यह तुरंत प्रतिक्रिया देने वाला, हँसी में गूंजने वाला, पर श्रोताओं में गहरे समय तक असर करने वाला परिवर्तन बना जो आज भी कवि मंचो में जीवंत है।
समय के साथ न केवल व्यंग्यकार बदले, व्यंग्य की ज़मीन भी बदली। इक्कीसवीं सदी के व्यंग्यकार अब ऐसे समाज में लिख रहे हैं, जहाँ मीडिया का अतिरेक है, सूचनाओं का विस्फोट है और संवेदनाओं की कमी हो चली है। अब व्यंग्य को हँसाने के लिए नहीं, झकझोरने के लिए लिखा जा रहा है। आज का व्यंग्य सोशल मीडिया के ट्रोल और मीम्स के शोर में भी अपनी जगह बनाता है। परंपरागत व्यंग्य लेखकों की तरह उसे अख़बार या पत्रिकाओं का इंतज़ार नहीं करना पड़ता, वह डिजिटल दुनिया में फ़ौरन प्रतिक्रिया देता है, पर टिकता कम है। यही वजह है कि आज के व्यंग्य में स्थायित्व की कमी दिखती है । जैसे तात्कालिक लतीफे हों, जो समय के साथ पुराने हो जाते हैं।
विषयों की दृष्टि से भी आज का व्यंग्य अधिक व्यक्तिगत, अधिक राजनीतिक और अधिक वैश्विक हुआ है। जहाँ पहले व्यंग्य का मुख्य उद्देश्य सामाजिक बुराइयों पर कटाक्ष करना था, आज वह व्यक्ति के अस्तित्व, उसकी पहचान, उसकी असुरक्षाओं पर भी सवाल उठाता है। अब व्यंग्य ‘मैं’ की भाषा बोलता है । वह कभी खुद लेखक की विडंबनाओं से उपजता है, कभी पाठक की उलझनों को स्वर देता है।
शैली में भी व्यापक परिवर्तन आया है। परसाई या शरद जोशी की तरह लंबे व्यंग्य निबंधों की जगह अब छोटी छोटी व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ, व्यंग्य कविताएँ, हास्य चित्र, व्यंग्यीय संवाद या मंचीय प्रहसन अधिक लोकप्रिय हैं। यह परिवर्तन पाठक की बदलती रुचि और जीवन की तेज़ रफ़्तार को दर्शाता है। अब व्यंग्य के पास पाठक का ध्यान खींचने के लिए अधिक समय नहीं होता, उसे दो-तीन पंक्तियों में ही चौंकाना पड़ता है। सम्पादकीय कालम के बाजू में एक नियत स्थान , नियत शब्दों में व्यंग्य ने स्तंभ के स्वरूप में स्थान बना लिया है। समकालीन व्यंग्यकार अपने ऐसे व्यंग्य को किंचित दीर्घायु बनाने के लिए पुस्तक का स्वरूप दे रहे हैं।
व्यंग्य लेखन में यह परिवर्तन केवल शैली का नहीं, मूल्य का भी है। पहले व्यंग्य का आधार मूल्यों की रक्षा था । नैतिकता, ईमानदारी, सादगी, सहिष्णुता जैसे मूल्यों की गिरावट पर प्रतिक्रिया व्यंग्य बन रही है। आज का व्यंग्य कभी कभी उन मूल्यों को ही संदिग्ध ठहराता है । वह पूछता है कि नैतिकता किसके लिए? ईमानदारी क्यों? अब व्यंग्य केवल व्यवस्था पर नहीं, मूल्य व्यवस्था पर भी प्रहार करता है। यह बदलाव एक ओर व्यंग्य को और भी गहरा बना सकता है, तो दूसरी ओर उसे विखंडन का शिकार भी कर सकता है।
कहना न होगा कि व्यंग्य की यह यात्रा कबीर के ‘ढाई आखर प्रेम’ से लेकर आज के ‘फॉरवर्ड मैसेज व्यंग्य’ और ट्विटर पर क्विक रिएक्शन तक अपने समय की सामाजिक और बौद्धिक चेतना का प्रतिबिंब है। लेकिन यह भी सत्य है कि व्यंग्य तब तक प्रभावशाली रहता है, जब तक वह किसी गूढ़ संवेदना से जुड़ा हो। केवल तंज या चुटकुला व्यंग्य नहीं बन सकता। व्यंग्य तब ही सार्थक होता है, जब वह पाठक को हँसाकर सोचने पर मजबूर कर दे, या सोचते हुए हँसा दे।
आज आवश्यकता इस बात की है कि व्यंग्यकार अपनी भाषा में कबीर की बेबाकी, परसाई की विवेकशीलता और काका की चुटीली सरलता को फिर से पिरोएँ। व्यंग्य न केवल समाज का दर्पण है, वह उसकी अंतरात्मा की आवाज़ भी है ।व्यंग्यकार का मौन रोष, उसका विवेकपूर्ण प्रतिरोध यह स्वर साहित्य के दृष्टिकोण से कमजोर नहीं पड़ना चाहिए।
व्यंग्य बदलता रहेगा । विषयों के साथ, माध्यमों के साथ, अभिव्यक्ति के साथ। पर जो नहीं बदलना चाहिए, वह है उसकी संवेदना, उसकी नैतिक दृष्टि और उसका व्यापक जनहित वाला भाव । अगर व्यंग्य अपना मूल यही भाव बनाए रखे, तो वह चाहे मोबाइल स्क्रीन पर हो या मंच पर, किताब में हो या कार्टून में , वह हमेशा प्रासंगिक रहेगा, प्रभावशाली रहेगा, और सबसे बढ़कर , जरूरी बना रहेगा।
- विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल