जन भावनाओं के सर्वप्रिय कवि--नागार्जुन
- पद्मा मिश्रा
जो जन जन के मन को जीत सके अविराम चले जीवन पथ पर
अपनी माटी की गाथा को जन मन तक,पहुंचाया सत्वर..
हे सुकवि !धन्य तुम नागार्जुन !
हे भूमिपुत्र !.गौरव ललाम,शत शत प्रणाम।
हिंदी साहित्य में एक जनप्रिय,जन-मन के लोक चितेरे कवि नागार्जुन का जीवन वृत्त और उनका सृजन समाज,धरती, और भूमिपुत्रों की पीड़ा का जीवंत दस्तावेज है। मूलतः मैथिली भाषी किंतु पाली,प्राकृत, संस्कृत सभी भाषाओं में पारंगत नागार्जुन निर्भय, जागरुक, सामाजिक सरोकारों के कवियों की परंपरा के शिखर पुरुष है।भाव मर्मज्ञ कवि हैं। उन्होने निडर होकर सत्ता और शासन को भी चुनौती दी और सच कहने में कभी पीछे नहीं रहे। जयप्रकाश आंदोलन के समय लिखी गई उनकी कविता आज भी एक जीवंत जागरण की बात उठाती है जहां सत्ता का भय नहीं, आलोचना से डर नहीं बल्कि एक जलते हुए सवाल की चुनौती है--
एक और गाँधी की हत्या होगी अब क्या ?
बर्बरता के भोग चढ़ेगा योगी अब क्या ?
पोल खुल गयी शासक दल के महामंत्र की
जयप्रकाश पर पड़ी लाठियां लोकतंत्र की ?
बिहार के तरौनी गांव में जन्मे नागार्जुन ने सामाजिक रिश्तों और मोोह से उतना ही जुड़े थेे, जितना जीवन यापन के लिए जरूरी था, अतः सबसे पहले अपने पैतृक नाम वैद्ययाथ मिश्र से मुक्ति पा लिया था और
तबसे मैथिली में यात्रीऔर हिंदी साहित्य जगत में नागार्जुन उपनाम से सृजन करते रहे।अपने समाज हित को समर्पित जीवन में वे आत्मप्रचार से सर्वथा दूर रहते थे,वह कविता जो जनजीवन से जुड़ी न हो,वह उन्हें कभी स्वीकार नहीं थी।वह चाहते थे कि कविता किसी सुभाषित की तरह नहीं लिखी जाये ,बल्कि समाज,व्यक्ति और सत्ता के दोषों को भी प्रकट करें
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के।
सीधी सरल सहज ग्रामीण भाषा में शासन की नीतियों को चुनौती देती यह कविता उस समय जन जन में लोकप्रिय हुईं थीं,एक मुक्त यायावर स्वभाव ,बेलाग लपेट के अपनी बात कहने की प्रवृत्ति उनके जीवन का अंग बन गई थी। वे खूब भ्रमण करते, किसी भी मित्र या छात्र के यहां पहुंच जाते, फिर रसोई के विषय में और घरेलू आम बुजुर्ग की तरह रस सिद्ध चर्चा करते थे। यही विनोदप्रियता उन्हें बेबाक बनाती थी।
आपातकाल की ज्यादतियों ने कवि की चेतना को झकझोर दिया था जब राहुल सांकृत्यायन और स्वामी सहजानंद के संपर्क में आए तो किसान आंदोलन का नेतृत्व किया और अनेक बार जेल भी गए। जयप्रकाश नारायण के ऊपर हुए लाठियों के प्रहार से वे व्यथित भी हुए और आक्रोशित भी।सच कहा और सच की ही वकालत भी की,, सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कोई भी बात,या अन्याय और दमन की आवाज कभी दबी नहीं,उनकी आवाज सदैव मुखर रही,
डर के मारे न्यायपालिका काँप गई है
वो बेचारी अगली गति-विधि भाँप गई है
देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा।
उनकी कविता में आत्मप्रशंसा या निजी जैसा कुछ भी नहीं था,जो भी था,वह देश-काल और सामाजिक प्रवचनाओ,भूख,गरीबी, और दीन हीन की समस्याओं से जुड़ा था,, उनकी लिखी एक कविता जो हमने अपने पाठ्यक्रम में पढी थी,उसने हमें या हमारी पीढ़ी को बहुत प्रभावित किया था,गरीबी का इतना सटीक और भावुक चित्रण कि हर मन का कोना भीग जाए।अकेली हरिजन गाथा कविता उनके जन सरोकारों से जुड़े होने का सशक्त प्रमाण है,,बहुत दिनों तक चूल्हा रोया,चक्की रही उदास। वे काव्यशास्त्र के ज्ञाता और भावों के जादूगर भी थे, उनकी भाषा में बोलियों का सहज बोधगम्य प्रयोग ही उनकी ताकत है,जैसा कि अरूण कमल ने कहा है यह वह भाषा है,जनता जिसके सर्वाधिक निकट है, ऐसे ही अटपटे रुप विधान से कविता के शिखर रचे जा सकते हैं। नागार्जुन ने स्वयम् कहा था कोई शास्त्र आपको जीवन को समझने में थोड़े न मदद करेगा, शास्त्र के अनुसार अगर वस्तु और स्थिति को देखिएगा तो फिसलकर गिरिएगा।
साहित्य की अनेक विधाओं में उन्होने रचना की चना जोर गरम,आओ रानी हम ढोएंगे पालकी और हर गंगे की गूंज पर लोक प्रवाही शैली के गीत भी लिखे।एक कविता जो शायद हर भारतीय संवेदनशील मन को छू लेती है और जिसे हर कोई पढ़ना,सुनना चाहता है,
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
यह कविता मैं भी बहुत पसंद करती हूं,वे छंदों के विज्ञ कवि थे कोमल संवेदनशील भावनाओं के कुशल चितेरे भी, कालिदास तुलसी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर कविताएं लिखी, युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, अपने खेत में, जैसी कविताएं उनके सृजन संसार में मील का पत्थर है,,जब जब कविता में लोक की बात होगी, सामाजिक सरोकारों की आवाज उठेगी,, और संवेदना के उच्चतम शिखर पर भावों की गहराई,मन को छुवेगी, तब तब नागार्जुन याद आएंगे,कवि को मेरा शत-शत नमन विनम्र श्रद्धांजलि!।
- पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर