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कहानी से क्रांति तक: मुंशी प्रेमचंद की साहित्यिक पदयात्रा - - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी


 [प्रसंगवश – 31 जुलाई: मुंशी प्रेमचंद जयंती]

कहानी से क्रांति तक: मुंशी प्रेमचंद की साहित्यिक पदयात्रा

[स्याही से उगता सूरज: मुंशी प्रेमचंद की लेखनी का उजास]

       प्रेमचंद की लेखनी वह ज्वाला है, जो साहित्य के आकाश में आज भी दिपदिपाती है, समाज के अंधेरे कोनों को उजागर करती हुई। 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में जन्मे धनपत राय, जिन्हें दुनिया प्रेमचंद के नाम से जानती है, हिंदी साहित्य के ऐसे शिल्पकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से न केवल कहानियाँ रचीं, बल्कि समाज की नब्ज को थामा और उसकी हर धड़कन को शब्दों में ढाला। उनकी रचनाएँ महज़ साहित्य नहीं, बल्कि एक क्रांति का आह्वान हैं, जो सामाजिक यथार्थ को नंगी सच्चाई के साथ सामने लाती हैं। प्रेमचंद यथार्थवाद के वह प्रणेता हैं, जिन्होंने समाज के हाशिए पर खड़े व्यक्ति को अपनी कहानियों का नायक बनाया, उनकी पीड़ा को स्वर दिया और अन्याय के खिलाफ एक ऐसी आवाज़ बुलंद की, जो आज भी गूंजती है। उनकी जयंती, जो हर साल 31 जुलाई को मनाई जाती है, हमें उनके विचारों को जीवित रखने और समाज में सकारात्मक बदलाव की प्रेरणा देती ह

प्रेमचंद का जीवन स्वयं एक कहानी है—संघर्ष, दृढ़ता और सत्य के प्रति अटूट निष्ठा की कहानी। मात्र सात वर्ष की आयु में माँ का साया उठा, चौदह वर्ष में पिता का निधन, और आर्थिक तंगी ने उनके बचपन को कठिनाइयों से भर दिया। फिर भी, फारसी और उर्दू में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने साहित्य की राह चुनी। ‘नवाब राय’ के नाम से उर्दू में लेखन शुरू करने वाले प्रेमचंद ने 1907 में ‘सोज़े-वतन’ लिखकर देशभक्ति का ऐसा जज्बा जगाया कि अंग्रेजी सरकार को उनकी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। यहीं से ‘प्रेमचंद’ का जन्म हुआ, और हिंदी साहित्य को एक नया दिशा-निर्देशक मिला। उनकी लेखनी में वह ताकत थी, जो सामंतवाद, जातिवाद, गरीबी और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ न केवल सवाल उठाती थी, बल्कि समाज को बदलने का रास्ता भी दिखाती थी।

प्रेमचंद को हिंदी साहित्य का ‘उपन्यास सम्राट’ कहा जाता है, और यह उपाधि उनकी रचनाओं की गहराई को देखते हुए बिलकुल सटीक है। उनका अंतिम और सबसे प्रभावशाली उपन्यास ‘गोदान’ (1936) भारतीय ग्रामीण जीवन का एक ऐसा दस्तावेज है, जो किसान होरी की कहानी के माध्यम से सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था की क्रूरता को उजागर करता है। यह उपन्यास हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और विश्व साहित्य में भी इसका विशेष स्थान है। आँकड़ों के अनुसार, ‘गोदान’ न केवल हिंदी साहित्य का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला उपन्यास है, बल्कि इसे अनेक भाषाओं में अनुवादित कर वैश्विक स्तर पर सराहा गया है। उनके अन्य उपन्यास जैसे ‘सेवासदन’ (1918), ‘रंगभूमि’ (1924), ‘गबन’ (1928), ‘कर्मभूमि’ (1932), और ‘निर्मला’ (1927) सामाजिक मुद्दों जैसे नारी शोषण, भ्रष्टाचार, वर्ग संघर्ष, और दहेज प्रथा को इतनी गहराई से चित्रित करते हैं कि पाठक उनमें डूब जाता है। ‘सेवासदन’ में वैश्यावृत्ति जैसे संवेदनशील विषय को उठाकर उन्होंने समाज की दोहरी नैतिकता पर करारा प्रहार किया, वहीं ‘निर्मला’ में दहेज और बाल विवाह की त्रासदी को उजागर किया।

प्रेमचंद की कहानियाँ, जो ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों में संकलित हैं और जिनकी संख्या लगभग 300 से अधिक है, उनकी साहित्यिक प्रतिभा का एक और रंग दिखाती हैं। ‘पंच परमेश्वर’, ‘ईदगाह’, ‘कफन’, ‘नमक का दरोगा’, ‘ठाकुर का कुआँ’, और ‘बड़े घर की बेटी’ जैसी कहानियाँ आज भी पाठकों के मन में जीवित हैं। ‘ईदगाह’ में हामिद का त्याग और प्रेम पाठकों को भावुक कर देता है, तो ‘कफन’ में गरीबी और सामाजिक निष्ठुरता का चित्रण हृदय को झकझोर देता है। ‘पंच परमेश्वर’ में ग्रामीण न्याय और नैतिकता का ऐसा चित्रण है, जो आज भी प्रासंगिक है। उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे यथार्थ को भावनाओं के साथ इस तरह पिरोती हैं कि पाठक स्वयं को कहानी का हिस्सा महसूस करता है।

प्रेमचंद की भाषा उनकी रचनाओं का प्राण है। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ हिंदी या जटिल उर्दू से परे, जनसामान्य की बोलचाल की भाषा को अपनाया। यह वह भाषा थी, जो गाँव की चौपालों, खेत-खलिहानों और आम जन की ज़िंदगी से निकली थी। उनकी यह सहज और सरल भाषा ही उनकी रचनाओं को हर वर्ग तक पहुँचाने में सफल रही। उदाहरण के लिए, ‘गोदान’ में होरी की मेहनत, उसका सपना, और उसकी हताशा को पढ़ते समय पाठक उसकी पीड़ा को अपने भीतर महसूस करता है। उनकी भाषा में वह जीवंतता थी, जो पाठक को कहानी के भीतर खींच लेती थी और उसे समाज की सच्चाई से रू-ब-रू कराती थी।

प्रेमचंद का साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि समाज सुधार और जागरूकता का एक शक्तिशाली औज़ार था। उनका मानना था कि साहित्यकार को समाज का मार्गदर्शक होना चाहिए। वे महात्मा गांधी के स्वदेशी और असहयोग आंदोलन से प्रभावित थे, परंतु उनकी दृष्टि में एक आलोचनात्मक चेतना थी। उनकी रचनाओं में गांधीवादी विचारों का प्रभाव दिखता है, लेकिन वे अंधभक्ति से कोसों दूर थे। उनके पात्र कभी पूर्णतः सही या गलत नहीं होते, बल्कि सामाजिक परिस्थितियों के दबाव में जूझते हुए मानवीय चेहरे हैं। ‘रंगभूमि’ का सूरदास, जो एक अंधा भिखारी होकर भी अपनी जमीन के लिए सामंतों से लड़ता है, सामाजिक अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक है।

प्रेमचंद की पत्रकारिता भी उनकी साहित्यिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उन्होंने ‘हंस’ (1930) और ‘जागरण’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया और सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक मुद्दों पर धारदार लेख लिखे। उनके लेखों में स्वतंत्रता संग्राम, शिक्षा, और सामाजिक सुधार के मुद्दों को प्रमुखता दी गई। वे हिंदी साहित्य के पहले लेखक थे, जिन्होंने लेखन को आजीविका का साधन बनाने का प्रयास किया, हालाँकि उनकी आर्थिक स्थिति हमेशा कमजोर रही। फिर भी, उन्होंने कभी अपनी लेखनी से समझौता नहीं किया।

प्रेमचंद का निधन 8 अक्टूबर 1936 को हुआ, लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी जीवित हैं। उनकी कृतियाँ विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित हुई हैं, और ‘गोदान’ को विश्व साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है। साहित्य अकादमी और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा उनके साहित्य पर निरंतर शोध और अध्ययन हो रहा है। आँकड़ों के अनुसार, उनकी कहानियाँ जैसे ‘ईदगाह’ और ‘पंच परमेश्वर’ हर साल लाखों छात्रों द्वारा स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पढ़ी जाती हैं। उनकी रचनाएँ आज भी पाठ्यक्रमों का हिस्सा हैं और सामाजिक चेतना का स्रोत बनी हुई हैं।

प्रेमचंद की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी उनके समय में थी। गरीबी, जातिवाद, नारी शोषण, भ्रष्टाचार, और किसानों की दुर्दशा जैसे मुद्दे आज भी समाज में मौजूद हैं। उनकी रचनाएँ हमें सिखाती हैं कि साहित्य केवल कहानियाँ नहीं, बल्कि समाज को बदलने की ताकत है। प्रेमचंद की जयंती हमें उनके साहित्य को पढ़ने, समझने और उनके विचारों को जीवन में उतारने की प्रेरणा देती है। उनकी लेखनी एक ऐसी मशाल है, जो हमें अंधेरे से उजाले की ओर ले जाती है। प्रेमचंद का साहित्य हमें यह सिखाता है कि कलम में तलवार से अधिक ताकत होती है—यह सोच बदल सकती है, व्यवस्था को चुनौती दे सकती है, और एक नई दिशा दे सकती है। उनकी जयंती पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम उनके साहित्य को न केवल स्मरण करेंगे, बल्कि उनके मूल्यों को जीवित रखकर समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करेंगे।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

1 Comments

  1. आर. के. जैन ने कथा सम्राट प्रेमचंद पर अपने प्रभावी विचार रखें धन्यवाद 🙏

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