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"डेटा की दलाली और ऋण की रेलमपेल : निजी बैंकों का नया लोकतंत्र" - प्रियंका सौरभ,हिसार


 

"डेटा की दलाली और ऋण की रेलमपेल : निजी बैंकों का नया लोकतंत्र"

- प्रियंका सौरभ,हिसार

"नमस्ते महोदय/महोदया, क्या आप व्यक्तिगत ऋण लेना चाहेंगे?"

कभी दोपहर की झपकी के बीच, कभी सभा के समय, कभी मंदिर के बाहर, तो कभी वाहन चलाते समय — यह स्वर अब हमारे जीवन की अनिवार्य पृष्ठभूमि बन चुका है।

यह मात्र एक स्वर नहीं, बल्कि एक कृत्रिम उत्पीड़न है — जो यह उद्घोष करता है कि हमारे नाम, दूरभाष अंक और आवश्यकताएं अब बाज़ार की संपत्ति बन चुकी हैं।

जब सरकारें 'डिजिटल भारत' के नारे लगाती हैं, उसी समय निजी बैंक हमारे जीवन की शांति को किस्तों में बेचने आ जाते हैं।

हमारा दूरभाष अंक इन्हें कौन देता है?

यह प्रश्न आज हर जागरूक नागरिक के मन में उठता है — आख़िर निजी बैंक या ऋण देने वाली एजेंसियों को हमारा मोबाइल नंबर, नाम और अन्य निजी जानकारी कहाँ से प्राप्त होती है?

उत्तर सीधा है — यह जानकारी हम स्वयं ही, अनजाने में, बाज़ार को सौंप देते हैं। जब हम किसी मोबाइल अनुप्रयोग को डाउनलोड करते समय बिना पढ़े "मैं सहमत हूँ" पर चिह्न लगाते हैं, किसी ऑनलाइन खरीदारी की वेबसाइट पर अपना मोबाइल नंबर दर्ज करते हैं, या किसी नौकरी पोर्टल पर अपना विवरण भरते हैं — तब हम अपनी निजता को बाज़ार के हवाले कर देते हैं।

ऐसे अनेक मोबाइल अनुप्रयोग होते हैं जो हमारे संपर्क-सूची, संदेशों, स्थान और यहां तक कि हमारे फोटो तक की पहुँच माँगते हैं। और हम, सुविधा के नाम पर, इन्हें सहमति दे देते हैं। बाद में यही जानकारी अलग-अलग बिचौलियों द्वारा निजी बैंकों और विक्रय अभिकर्ताओं को बेच दी जाती है।

यह एक प्रकार की "डेटा दलाली" है — जिसमें व्यक्ति की निजता को मूल्यवान वस्तु मानकर नीलाम किया जाता है।

 सरकारी बैंक क्यों नहीं करते ऐसी धृष्टता?

जहाँ निजी बैंक दिन-रात मोबाइल पर ऋण प्रस्ताव भेजते हैं, वहीं सरकारी बैंक अपेक्षाकृत शांत और पारंपरिक तरीके से कार्य करते हैं।

सरकारी बैंकों में आज भी ऋण प्राप्त करने के लिए भारी कागज़ी कार्यवाही, दस्तावेज़ों की सत्यता, ज़मानतदार और कई प्रकार की प्रमाणिकताएं माँगी जाती हैं। ये बैंक सेवा को प्राथमिकता देते हैं, न कि बिक्री को।

उनके पास निजी बैंकों की तरह भारी विपणन (मार्केटिंग) बजट नहीं होता, और न ही एजेंटों को कमिशन देने की उतनी होड़ होती है। इसलिए वे बिना माँगे किसी को कॉल नहीं करते।

यही कारण है कि आपको कभी किसी सरकारी बैंक से "तत्काल ऋण की सुविधा" का फोन नहीं आता, जबकि निजी बैंक आपको ग्राहक से अधिक "लाभदायक अवसर" के रूप में देखते हैं।

गरीब को ऋण नहीं, कॉल नहीं — क्यों?

जो लोग वास्तव में आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, जिन्हें ऋण की आवश्यकता सबसे अधिक है — उन्हें न तो कॉल आता है, न कोई बैंक प्रतिनिधि उनके द्वार पहुँचता है।

ऐसे लोगों के पास "क्रेडिट स्कोर" नहीं होता, उनकी आय अनियमित होती है, और उनके पास न संपत्ति होती है, न बैंकिंग इतिहास। इसलिए बैंक उन्हें जोखिम मानते हैं, संभावना नहीं।

वहीं, जिन लोगों ने पहले से किसी ऋण का भुगतान समय पर किया है, जो व्यक्ति ऑनलाइन खरीदारी करते हैं या जिनकी आय अधिक है — वही निजी बैंकों के लिए "लक्ष्य" होते हैं।

इस प्रकार ऋण सुविधा उन तक नहीं पहुँचती, जिन्हें उसकी वास्तव में आवश्यकता है — बल्कि उन तक पहुँचती है जो पहले से संपन्न हैं।

 क्या यह कॉल मानसिक उत्पीड़न नहीं है?

यह प्रश्न अब केवल विचार का विषय नहीं रहा — यह वास्तविक अनुभव बन चुका है। अधिकांश लोग दिन में चार-पाँच बार अनचाही कॉल्स से परेशान रहते हैं।

"नमस्ते, आपको 5 लाख रुपये तक का ऋण स्वीकृत है…"

"बस एक दस्तावेज़ दीजिए और आज ही राशि प्राप्त कीजिए…"

"आपका ऋण पहले से स्वीकृत है, बस अंतिम चरण बाकी है…"

इन कॉल्स को ठुकराने पर भी चैन नहीं मिलता। एक नंबर बंद किया तो दूसरा फोन आने लगता है। 'कृपया मुझे परेशान न करें' सेवा (DND) सक्रिय करने के बावजूद ये कॉल्स आती रहती हैं।

यह एक प्रकार की "वित्तीय मानसिक हिंसा" है — जिसमें व्यक्ति को यह अहसास दिलाया जाता है कि यदि उसने ऋण नहीं लिया, तो वह कोई अवसर खो रहा है, या आर्थिक दृष्टि से पिछड़ रहा है।

डेटा बेचने वाले कौन हैं?

निजता की यह चोरी केवल बैंकों द्वारा नहीं होती। इसके पीछे एक बड़ा और संगठित तंत्र है — जिसमें मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियाँ, विभिन्न मोबाइल अनुप्रयोग, नौकरी खोजने वाले पोर्टल, बीमा विक्रेता, ई-कॉमर्स कंपनियाँ और यहां तक कि कुछ सरकारी वेबसाइटें भी शामिल हो सकती हैं।

यह संस्थाएँ विभिन्न माध्यमों से हमारे निजी विवरण एकत्र करती हैं — और फिर इन्हें कई बार खुले बाज़ार में विक्रय कर देती हैं।

कई बार बैंक प्रतिनिधि आपको कॉल करके आपके पिताजी का नाम, आपकी जन्मतिथि, नौकरी, यहाँ तक कि आपकी मासिक आय तक बता देते हैं। इससे स्पष्ट है कि हमारा निजी जीवन अब सार्वजनिक मंच पर बिकने वाली वस्तु बन चुका है।

 सरकार क्या कर रही है?

सरकार ने वर्ष 2023 में 'डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक' पारित किया था। इसके अनुसार, किसी भी संस्था को आपकी अनुमति के बिना आपका व्यक्तिगत डेटा उपयोग करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

किन्तु व्यवहार में यह विधेयक आज भी कागज़ों तक ही सीमित है। ना तो कॉल्स रुके हैं, न ही डेटा की दलाली थमी है।

जब तक इन नियमों का पालन कराने के लिए कठोर दंड और स्पष्ट नियंत्रण नहीं होंगे, तब तक नागरिकों की निजता मात्र एक हास्यास्पद अवधारणा बनी रहेगी।

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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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