[प्रसंगवश – 18 अगस्त: सुभाष चंद्र बोस पुण्यतिथि]
गुमनामी से अमरत्व तक—नेताजी का अनंत सफर , -
[पुण्यतिथि पर आत्ममंथन: क्या हम बोस के सपनों का भारत गढ़ पाए हैं?]
“दिल्ली चलो!”—यह नारा मात्र एक उद्घोष नहीं, बल्कि सुभाष चंद्र बोस द्वारा भारतीय जनमानस में प्रज्वलित एक ज्वलंत क्रांति की चिंगारी था। उनकी पुण्यतिथि हमें उस अदम्य योद्धा को स्मरण करने का अवसर देती है, जिसने स्वतंत्रता को रक्त, बलिदान और अटूट संकल्प से जोड़ा। उन्होंने एक ऐसे भारत का सपना देखा, जो न केवल औपनिवेशिक बेड़ियों से मुक्त हो, बल्कि अपनी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शक्ति के बल पर विश्व मंच पर सिर ऊँचा कर खड़ा हो। सुभाष चंद्र बोस का जीवन केवल इतिहास की पंक्तियों तक सीमित नहीं, बल्कि साहस, समता और आत्मनिर्भरता की वह प्रेरणा है, जो आज भी हमें दिशा दिखाती है। उनकी पुण्यतिथि पर हमें उनकी अनकही विरासत—उनके वैश्विक दृष्टिकोण, सामाजिक क्रांति की सोच और रहस्यमय अंत की गूँज को पुनर्जनन और सम्मान देना चाहिए।
सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाई। 1941 में जर्मनी में उन्होंने सैन्य सहायता मांगी और भारत के संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। जर्मन भाषा और यूरोपीय राजनीति की समझ के साथ उन्होंने प्रभावी संवाद किया। जर्मनी से समर्थन न मिलने पर भी उनका संकल्प अटल रहा। जापान में आज़ाद हिंद फौज को पुनर्जनन दिया और 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में आज़ाद हिंद सरकार स्थापित की, जो स्वतंत्र भारत का प्रशासनिक स्वप्न थी। जापान, जर्मनी, इटली से मान्यता प्राप्त इस सरकार में हिंदू, मुस्लिम, सिख समेत सभी समुदायों को शामिल कर बोस ने एकता और समावेशिता का उदाहरण पेश किया।
सुभाष चंद्र बोस की सामाजिक दृष्टि स्वतंत्रता को सामाजिक समता, आर्थिक आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक गौरव से जोड़ती थी। आज़ाद हिंद सरकार में लक्ष्मी सहगल को रानी झाँसी रेजिमेंट का नेतृत्व सौंपकर उन्होंने लैंगिक समानता का क्रांतिकारी कदम उठाया, जहाँ महिलाएँ पुरुष सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ीं। बोस का मानना था कि भारत की प्रगति जातिगत भेदभाव, सामाजिक रूढ़ियों और लैंगिक असमानता से मुक्ति के बिना असंभव है। उनकी पुस्तक द इंडियन स्ट्रगल में वे एक आधुनिक भारत की कल्पना करते हैं, जो औद्योगिकीकरण, शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित हो। यह प्रगतिशील सोच उस युग में, जब राजनीतिक स्वतंत्रता ही प्रमुख थी, एक सशक्त भारत का दूरदर्शी खाका थी।
सुभाष चंद्र बोस का बौद्धिक पक्ष उनकी नेतृत्व क्षमता जितना ही प्रभावशाली था। कैम्ब्रिज की शिक्षा ने उन्हें पश्चिमी दर्शन और राजनीति से जोड़ा, पर वे भारतीय संस्कृति और दर्शन से गहरे जुड़े रहे। स्वामी विवेकानंद और रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव उनके लेखन और भाषणों में दिखता था। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” जैसे आह्वान ने आज़ाद हिंद रेडियो के माध्यम से युवाओं में आत्मविश्वास और क्रांति की ज्वाला जलाई। जनमानस को प्रेरित करने और विचारों के स्तर पर क्रांति रचने की उनकी क्षमता उन्हें एक अप्रतिम नेता बनाती थी।
सुभाष चंद्र बोस की पुण्यतिथि का रहस्य उनकी मृत्यु के इर्द-गिर्द अनुत्तरित प्रश्नों से जुड़ा है। आधिकारिक दस्तावेज़ दावा करते हैं कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई, पर मुखर्जी आयोग ने इसे खारिज कर संकेत दिए कि बोस शायद सोवियत संघ में जीवित रहे या भारत में “गुमनामी बाबा” के रूप में 1985 तक रहे। यह रहस्य उनकी मृत्यु से परे स्वतंत्रता संग्राम की अधूरी गाथा को दर्शाता है, जो बोस को एक अमर किंवदंती बनाता है, जो हमें उनके सपनों को साकार करने की प्रेरणा देता है।
सुभाष चंद्र बोस की संगठनात्मक अनुशासन की भावना उनकी विरासत का एक अनमोल रत्न है। आज़ाद हिंद फौज केवल एक सैन्य संगठन नहीं थी; यह एक ऐसी प्रयोगशाला थी, जहाँ सैनिकों को युद्ध कौशल के साथ-साथ नैतिकता, अनुशासन और अटूट देशभक्ति की शिक्षा दी जाती थी। बोस का दृढ़ विश्वास था कि कोई आंदोलन तभी विजयी हो सकता है, जब वह सैन्य-जैसी अनुशासनबद्धता और एकता से संचालित हो। उनकी फौज में विभिन्न धर्मों, क्षेत्रों और पृष्ठभूमियों के लोग कंधे से कंधा मिलाकर लड़े, जो उस युग के भारत में सामाजिक एकता का एक प्रेरक प्रतीक था। “कर्म ही पूजा है” का उनका मंत्र हर सैनिक के हृदय में गूँजता था, जो उनकी नेतृत्व शक्ति का जीवंत प्रमाण था।
सुभाष चंद्र बोस की पुण्यतिथि पर हमें उनके स्वप्नों—आर्थिक आत्मनिर्भरता, सामाजिक समता और सांस्कृतिक गौरव से युक्त भारत—के प्रति आत्ममंथन करना होगा। उनकी दूरदर्शी सोच, औद्योगिकीकरण, शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आज भी प्रासंगिक है। भारत आज आर्थिक असमानता, सामाजिक भेदभाव और शिक्षा की कमी से जूझ रहा है। बोस का जीवन सिखाता है कि इनका समाधान क्रांतिकारी दृष्टिकोण, अटूट संकल्प और सामूहिक इच्छाशक्ति से ही संभव है। उनकी पुण्यतिथि हमें उनके बलिदान को याद कर उनके सपनों को साकार करने का संकल्प लेने का अवसर देती है।
सुभाष चंद्र बोस की पुण्यतिथि महज एक औपचारिक स्मरण नहीं, बल्कि एक प्रज्वलित संकल्प है—उनके अधूरे सपनों को साकार करने और उनकी अमर गाथा को जीवंत रखने का। उनका जीवन हमें सिखाता है कि स्वतंत्रता कोई स्थिर उपलब्धि नहीं, बल्कि एक सतत यात्रा है, जिसमें प्रत्येक पीढ़ी को अपने युग की चुनौतियों से टकराना पड़ता है। “जय हिंद” का उनका नारा केवल एक उद्घोष नहीं, बल्कि एक प्रेरक आह्वान है—साहस, समर्पण और आत्मनिर्भरता के साथ उस भारत को रचने का, जिसके लिए बोस ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। उनकी पुण्यतिथि हमें यह स्मरण कराती है कि सच्ची श्रद्धांजलि उनके बलिदान को केवल याद करना नहीं, बल्कि उनके दिखाए पथ पर अडिग होकर एक सशक्त, समृद्ध और समतामूलक भारत का निर्माण करना है। यह दिन हमें न केवल उनकी विरासत को सम्मान देने, बल्कि उनके आदर्शों को जीकर एक नए भारत के स्वप्न को साकार करने का प्रण लेने का अवसर देता है।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)