काव्य :
ग़ज़ल
दुल्हन ही तंरह फिर तो कुछ और संवरती है।
बरसात के मौसम में ये धरती खनकती है।
आराम नहीं आता इक पल को ज़रा सा भी,
जब याद चिलम जैसी सीने में सुलगती है।
दुश्मन के जिगर छलनी हो जाते हैं इक पल में
शमशीर जो हैदर की बिजली सी चमकती है।
धड़कन पे रहे काबू कैसे ये बताओ तो
वो हूर परी जैसी जब बऩ के उतरती है।
मुफलिस के बसेरे को बुलडोज़ जहाँ करते
इक आह सी इस दिल से उस वक्त निकलती है।
- हमीद कानपुरी,
अब्दुल हमीद इदरीसी,
वरिष्ठ प्रबंधक, (सेवानि)
मण्डल कार्यालय, बिरहाना रोड,
कानपुर -208001
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