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खंडवा से अमरता तक: किशोर कुमार की सुरों भरी यात्रा - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी


 [प्रसंगवश – 04 अगस्त - पार्श्व गायक किशोर कुमार की जयंती]

खंडवा से अमरता तक: किशोर कुमार की सुरों भरी यात्रा

[जहाँ सुर, संवेदना और शरारत मिलते हैं – वहाँ किशोर कुमार होते हैं]

[किशोर कुमार: आवाज़ का वह जादू जो समय को बाँध लेता है]

    किशोर कुमार—एक ऐसी आवाज़ जो दिलों की गहराइयों में उतरती है, एक ऐसा जादू जो समय की सीमाओं को लांघता है, और एक ऐसी शख्सियत जो भारतीय सिनेमा के आकाश में सूरज की तरह चमकती है। 4 अगस्त 1929 को मध्यप्रदेश के खंडवा में जन्मे आभास कुमार गांगुली, जिन्हें दुनिया किशोर दा के नाम से पूजती है, केवल एक गायक, अभिनेता, या संगीतकार नहीं थे—वे एक जीवंत कला थे, जिन्होंने हर गीत में अपनी आत्मा उड़ेल दी। उनकी आवाज़ में प्रेम की मिठास, जुदाई का दर्द, मस्ती की शरारत, और जीवन का दर्शन एक साथ बसता था। किशोर कुमार ने न केवल हिंदी सिनेमा को समृद्ध किया, बल्कि हर संगीत प्रेमी के दिल में एक अमिट छाप छोड़ी।

खंडवा के साधारण परिवेश में जन्मे किशोर कुमार का बचपन सामान्य था, लेकिन उनकी प्रतिभा असाधारण। उनके पिता कुंजीलाल गांगुली एक वकील थे, और बड़े भाई अशोक कुमार उस समय सिनेमा के एक चमकते सितारे थे। अशोक के बुलावे पर किशोर मुंबई आए, जहां उनकी यात्रा एक अभिनेता के रूप में शुरू हुई। उनकी पहली फिल्म शिकारी (1946) थी, लेकिन उनका दिल अभिनय से ज्यादा गायकी में रमता था। संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद, उन्होंने अपनी सहज प्रतिभा और जुनून से वह मुकाम हासिल किया जो शास्त्रीय प्रशिक्षण के बिना दुर्लभ है। उनकी प्रेरणा थे के.एल. सहगल, जिनकी गायकी का प्रभाव उनके शुरुआती गीतों में साफ झलकता है।

किशोर कुमार की गायकी का पहला बड़ा पड़ाव था ज़िद्दी (1948) का गीत ‘मरने की दुआएं क्यों मांगूं’, जिसने उनकी प्रतिभा की झलक दिखाई। लेकिन असली शोहरत उन्हें 1969 में आराधना के गीतों ‘मेरे सपनों की रानी’ और ‘रूप तेरा मस्ताना’ से मिली। इन गीतों ने उन्हें रातों-रात स्टार बना दिया और राजेश खन्ना की आवाज़ के रूप में उनकी पहचान को अमर कर दिया। 1970 का दशक किशोर दा और राजेश खन्ना की जोड़ी का सुनहरा दौर था। अमर प्रेम का ‘चिंगारी कोई भड़के’, कटी पतंग का ‘ये शाम मस्तानी’, और महबूब की मेहंदी का ‘ये जो चिलमन है’ जैसे गीतों ने लाखों दिलों को जीत लिया। उनकी आवाज़ में एक ऐसी जादूगरी थी जो हर गीत को जीवंत कर देती थी।

किशोर कुमार की सबसे बड़ी ताकत थी उनकी आवाज़ की अभिव्यक्ति। वे गीत में केवल शब्द नहीं गाते थे, बल्कि किरदार की आत्मा को जीते थे। चाहे सफर का ‘ज़िंदगी के सफर में’ हो, जिसमें जीवन की नश्वरता का दर्शन छिपा है, या पड़ोसन का ‘मेरे सामने वाली खिड़की में’ जिसमें हास्य की चमक है—किशोर दा हर भाव को अपनी आवाज़ में ढाल लेते थे। उन्होंने लगभग 2,700 गीत गाए, जिनमें रोमांटिक, दर्दभरे, हास्यपूर्ण, और दार्शनिक गीत शामिल हैं। कुदरत का ‘हमें तुमसे प्यार कितना’, अनुराधा का ‘हाय रे वो दिन क्यों न आए’, और डॉन का ‘खाइके पान बनारस वाला’ जैसे गीत उनकी बहुमुखी प्रतिभा के गवाह हैं।

उनकी आवाज़ हर अभिनेता के लिए सटीक बैठती थी। राजेश खन्ना की रोमांटिक छवि, अमिताभ बच्चन का गुस्सैल युवा, देव आनंद का चुलबुला अंदाज़, या धर्मेंद्र का देसी ठाठ—किशोर की आवाज़ हर चेहरे को और जीवंत बना देती थी। आर.डी. बर्मन के साथ उनकी जोड़ी ने हिंदी सिनेमा को कई कालजयी गीत दिए। हरे रामा हरे कृष्णा का ‘दम मारो दम’, जवानी दीवानी का ‘जाने जां ढूंढता फिर रहा’, और यादों की बारात का ‘चुरा लिया है तुमने’ जैसे गीत उनकी और पंचम की रचनात्मकता का नमूना हैं। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी, और एस.डी. बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ भी उन्होंने अनगिनत हिट गीत दिए।

किशोर कुमार केवल गायक ही नहीं, एक संवेदनशील फिल्मकार भी थे। उन्होंने झुमरू (1961), दूर गगन की छांव में (1964), और दूर का राही (1971) जैसी फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया। उनकी फिल्में मानवीय रिश्तों, सामाजिक सरोकारों, और जीवन के गहरे दर्शन को दर्शाती थीं। दूर गगन की छांव में में एक सैनिक की भावनात्मक कहानी को उन्होंने इतनी संवेदनशीलता से पेश किया कि यह फिल्म आज भी दर्शकों को रुला देती है। उन्होंने अपनी फिल्मों में संगीत भी दिया और गीत भी लिखे, जो उनकी रचनात्मकता का एक और आयाम दिखाता है।

उनका व्यक्तित्व उतना ही अनूठा था जितनी उनकी कला। किशोर दा रूढ़ियों को तोड़ने वाले और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने कई बार फिल्म उद्योग की व्यावसायिकता और रीति-रिवाजों का खुलकर विरोध किया। एक मशहूर किस्सा है कि जब एक निर्माता ने उन्हें समय पर भुगतान नहीं किया, तो उन्होंने आधा गाना गाकर स्टूडियो छोड़ दिया। उनकी यह बेबाकी और आत्मसम्मान उन्हें और भी खास बनाता था।

किशोर कुमार का निजी जीवन रंगीन और जटिल था। उन्होंने चार विवाह किए—रुमा गुहा ठाकुरता (1950-1958), मधुबाला (1960-1969), योगिता बाली (1976-1978), और लीना चंदावरकर (1980-1987)। मधुबाला के साथ उनकी प्रेम कहानी हिंदी सिनेमा की सबसे मार्मिक कहानियों में से एक है। मधुबाला की बीमारी और असमय निधन ने किशोर को गहरे तक प्रभावित किया। उनके कई दर्दभरे गीतों में मधुबाला के प्रति उनकी भावनाएं झलकती हैं। 13 अक्टूबर 1987 को, मात्र 58 वर्ष की उम्र में किशोर कुमार ने हृदयाघात के कारण इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, उनका पार्थिव शरीर उनके जन्मस्थान खंडवा ले जाया गया। उनकी मृत्यु ने सिनेमा जगत में एक ऐसी रिक्तता छोड़ी जो कभी पूरी नहीं हो सकती। फिर भी, उनकी आवाज़ आज भी हर संगीत प्रेमी के दिल में गूंजती है।

किशोर कुमार केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि एक युगपुरुष थे, जिनकी आवाज़ में जादू और आत्मा का संगम था। उनकी गायकी हर पीढ़ी को अपने रंग में रंग लेती है, चाहे वह मुनीमजी का “जीवन के सफर में राही” हो, जिसमें जिंदगी की सैर की मासूम शरारत और गहरा दर्शन झलकता है, या अमर प्रेम का “कुछ तो लोग कहेंगे”, जो समाज की रूढ़ियों पर करारा प्रहार करता है। उनके गीत जीवन के हर रंग—प्रेम, दर्द, मस्ती और आत्मचिंतन को जीवंत करते हैं। उनकी जयंती पर हम उनकी उस कला को सलाम करते हैं, जो हमें सिखाती है कि सच्चा कलाकार समय और मृत्यु की सीमाओं को लांघकर अमर हो जाता है। किशोर दा भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ की गूंज अनंतकाल तक दिलों में बसी रहेगी। वे भारतीय सिनेमा के वो सितारे हैं जो कभी नहीं डूबेंगे।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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