[प्रसंगवश – 24 अगस्त: अमर शहीद शिवराम हरि राजगुरु जयंती]
जीवन की लंबाई नहीं, ऊँचाई मायने रखती है—राजगुरु .
[फाँसी का फंदा भी जिसे उत्सव लगा: शहीद राजगुरु]
कल्पना करें उस पल को, जब एक युवा, जिसकी उम्र मुश्किल से इक्कीस-बाईस वर्ष होगी, आँखों में आजादी का सपना लिए, चेहरे पर न डरने वाली हँसी और दिल में मातृभूमि के प्रति अटूट जुनून लिए, फाँसी के तख्ते की ओर इस तरह बढ़ता हो, मानो वह कोई उत्सव मनाने जा रहा हो। यह महज एक काल्पनिक चित्र नहीं, बल्कि शिवराम हरि राजगुरु की अमर गाथा है, जिन्होंने अपने साहस, बुद्धिमत्ता और अनूठे हास्य से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई चमक दी। उनकी जयंती पर जब हम उनके जीवन को स्मरण करते हैं, तो इतिहास के वे पन्ने सजीव हो उठते हैं, जो न केवल गौरव से भरे हैं, बल्कि आज के युवाओं के लिए प्रेरणा का अखंड स्रोत हैं। राजगुरु का जीवन सिर्फ एक क्रांतिकारी की कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसी ज्योति है, जो हमें आत्मबल, बौद्धिक गहराई और निर्भीकता का सबक देती है।
शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को महाराष्ट्र के पुणे जिले के खेड़ा (अब राजगुरुनगर) में एक मध्यमवर्गीय मराठा परिवार में हुआ। बचपन साधारण रहा, पर सोच असाधारण थी। कम उम्र में बनारस जाकर उन्होंने संस्कृत और तर्कशास्त्र का गहन अध्ययन किया। लाहौर षड्यंत्र मामले में पूछताछ के दौरान संस्कृत में जवाब देकर अंग्रेजों को चकित कर दिया, जो उनकी विद्वता और सांस्कृतिक गर्व का प्रतीक था। राजगुरु केवल क्रांतिकारी नहीं, बल्कि एक विद्वान थे, जिन्होंने ज्ञान को राष्ट्रसेवा का हथियार बनाया।
राजगुरु का व्यक्तित्व केवल विद्वता तक सीमित नहीं था; उनकी शारीरिक शक्ति और अनुशासन भी अद्भुत थे। बनारस में "हनुमान प्रसारक मंडल" से जुड़कर उन्होंने कुश्ती, व्यायाम और आत्मरक्षा में निपुणता हासिल की। क्रांतिकारी आंदोलन के चरम पर उन्होंने अपने शरीर को लोहे-सा दृढ़ बनाया, जो किसी भी यातना को झेल सके। एक बार चंद्रशेखर आज़ाद ने ब्रिटिश पुलिस की यातनाओं का ज़िक्र किया। जवाब में राजगुरु ने चुपके से अंगीठी से जलती लोहे की छड़ उठाई और उसे अपने शरीर पर सात बार रखा, बिना दर्द की शिकन के। आज़ाद के चिंतित पूछने पर उन्होंने हँसते हुए कहा, “यातना शरीर को छू सकती है, आत्मा को नहीं।” यह उनकी अटूट सहनशक्ति और आत्मबल का प्रेरक उदाहरण है, जो इतिहास में कम ही उजागर हुआ। उनकी यह तपस्या ने साथियों में जोश का संचार किया।
राजगुरु की निशानेबाजी की कला अद्वितीय थी, जिसने उन्हें क्रांतिकारी आंदोलन का नायाब सिपाही बनाया। 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में जॉन सांडर्स की हत्या की योजना में उनकी भूमिका उनकी अचूक निशानेबाजी के कारण थी। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) ने उनकी सटीकता पर अटूट भरोसा जताते हुए उन्हें यह ज़िम्मेदारी सौंपी। भले ही गोली स्कॉट के बजाय सांडर्स को लगी, इस कार्रवाई ने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। कार्रवाई के बाद राजगुरु की निर्भीक सहजता देखते बनती थी। उन्होंने हल्के अंदाज़ में कहा, निशाना सिर पर था, गोली सीने में लगी। यह हास्यबोध उनकी निर्भीकता का प्रतीक था। मृत्यु की छाया में भी उनकी हँसी अडिग रही, जो उनके साहस और जीवटता को दर्शाती है।
राजगुरु का हास्यबोध उनकी सबसे अनोखी विशेषता थी, जो उन्हें अन्य क्रांतिकारियों से अलग करता था। भगत सिंह और सुखदेव के साथ उनकी दोस्ती केवल क्रांति की साझेदारी नहीं थी, बल्कि एक ऐसा रिश्ता था जो हँसी और आत्मीयता से भरा था। जेल में भी वे अपने साथियों का हौसला बढ़ाने के लिए मजाक करते। एक बार भूख हड़ताल के दौरान जब साथियों ने उनसे पूछा, “अगर तुम पहले मर गए तो?” तो राजगुरु ने ठहाका लगाते हुए कहा, “तो मैं वहाँ तुम्हारे लिए एक कमरा बुक कर दूँगा।” यह हल्का-फुल्का जवाब उस युवक की मानसिक दृढ़ता को दर्शाता है, जो मृत्यु को भी एक खेल की तरह लेता था।
उनकी सहजता का एक और उदाहरण तब देखने को मिला जब सांडर्स हत्याकांड के बाद भगत सिंह और राजगुरु को भागना पड़ा। भगत सिंह और उनकी पत्नी दुर्गावती (जो साथ थीं) ने अंग्रेज साहब और मैम का वेश बनाया, जबकि राजगुरु ने नौकर की भूमिका निभाई। ट्रेन में उनका अभिनय इतना स्वाभाविक था कि अंग्रेज अधिकारी भी धोखा खा गए। यह उनकी चपलता और बुद्धिमानी का परिचय था, जो इतिहास में कम ही उजागर होता है।
लाहौर सेंट्रल जेल में राजगुरु का अटल आत्मबल कभी नहीं डिगा। भगत सिंह और सुखदेव के साथ उनकी बातचीत गंभीरता और हास्य का अनूठा संगम थी, जो जेल की दीवारों को उनके ठहाकों से गूँजने देती थी। फाँसी से कुछ घंटे पहले उन्होंने साथियों से कहा, जीवन का मूल्य उसकी लंबाई में नहीं, उसकी ऊँचाई में है। यह वाक्य उनके जीवन का सार है। महज 22 वर्ष की उम्र में राजगुरु ने ऐसी ऊँचाई छुई, जो आज भी हर दिल को प्रेरित करती है, साहस और बलिदान की अमर गाथा बनकर।
राजगुरु को प्रायः भगत सिंह और सुखदेव की छाया में देखा जाता है, किंतु यह एक भ्रांति है। वे उस त्रयी का अपरिहार्य अंग थे, जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा और गति प्रदान की। उनकी विद्वता, साहस और हास्यबोध ने इस त्रयी को पूर्णता दी। कम लोग जानते हैं कि जेल में राजगुरु ने संस्कृत में एक डायरी लिखी, जिसमें उनके गहन विचार झलकते थे। अफसोस, वह डायरी आज लुप्त है, पर यह उनके बौद्धिक सामर्थ्य का प्रतीक है।
उनकी जयंती पर हमें यह स्मरण करना होगा कि राजगुरु केवल क्रांतिकारी नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रेरणा थे। उन्होंने सिखाया कि क्रांति केवल बारूद और बंदूकों का शोर नहीं, बल्कि ज्ञान, आत्मबल और हृदय की निर्मलता का संगम है। उनकी जिंदादिली और निर्भीकता आज की युवा पीढ़ी के लिए एक चुनौती है—जब तन, मन और हृदय एक लक्ष्य के लिए एकजुट हों, तो कोई बाधा अजेय नहीं। राजगुरु का जीवन हमें पुकारता है कि हम अपने भीतर की ज्वाला को प्रज्वलित करें और असंभव को संभव बनाएँ।
23 मार्च 1931 को, जब राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव फाँसी के तख्ते पर चढ़े, उन्होंने न केवल अपनी जान कुर्बान की, बल्कि एक ऐसी ज्योति प्रज्वलित की जो आज भी धधक रही है। राजगुरु की निर्भीक मुस्कान, उनकी गहन विद्वता और उनकी प्रचंड ज्वाला हमें सिखाती है कि स्वतंत्रता महज एक शब्द नहीं, बल्कि एक पवित्र जिम्मेदारी है। उनकी गाथा कोई धूमिल इतिहास नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रेरणा है, जो साहस, हास्य और ज्ञान के संगम से असंभव को संभव बनाने का संदेश देती है। उनकी अमरता मृत्यु में नहीं, बल्कि उस अखंड ऊर्जा में बसती है, जो आज भी हमारे हृदय में स्वतंत्रता की लौ को प्रज्जवलित रखती है, हमें न झुकने की हिम्मत और न रुकने का हौसला देती है।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)