काव्य :
सलीब में है
झूठ अब तहजीब में है।
सच लगा सलीब में है।
मुद्दतों की दूरियां हैं।
भाई भी करीब में है।
रोज देखा उसका चेहरा
जाने क्यों अजीब में है
दिलबड़ा रखता है लेकिन
दुनियां के गरीब में है।
जश्न ए आजादी लड़ी थी।
कहते सब मुजीब में है।
ठोकरें ही खाना हर दिन।
कब तलक नसीब में है।
- आर एस माथुर , इंदौर
सलीब/सूली
मुजीब/ज़ि म्मेदार
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