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लघु कथा : मन का दीया - डॉ मंजू लता , नोयेडा



लघु कथा :

मन का दीया

     दिवाली का दिन था। सारा शहर ख़ुशी से झूम रहा था। बच्चे तो बच्चे बूढ़े भी ख़ुश लग रहे थे। महीने भर पहले से घर-द्वार की सफाई शुरू हो गई थी।

         अमावस्या के दिन आते-आते तो हर घर में बत्ती की लड़ियाँ लटकने लगी। कहीं पर ज़्यादा तो कहीं पर कम। जैसी जिसकी हस्ती वैसी सजावट लोगों ने किया था।

                  एक ज़माना था जब मिट्टी के दीपक ही जलाये जाते थे। दीये की जगह अब बिजली के बल्बों ने ले ली थी। थोड़े बहुत दीये की बिक्री हो रही थी।

       दिवाली में कुम्हारों की अच्छी खासी बिक्री हो जाती थी। लेकिन अब उनकी बिक्री दर ढीली हो चली थी। ऐसी स्थिति में रामू कुम्हार के घर की हालत ठीक नहीं थी। रामू बहुत दिनों से तपेदिक की बिमारी झेल रहा था। अब उससे चाक चला कर मिट्टी का सामान बनाना संभव नहीं हो रहा था। रामू की पत्नी भी दमें की मरीज थी। किसी तरह वही अपने पुत्र रतन के साथ मिल कर कुछ खिलौने और मिट्टी के बरतन बना लेती थी। दिवाली पर ही अच्छी खासी बिक्री हो पाती थी।

      इस दिवाली पर बाजार जा कर अपने समानों का बिक्री करना उसके लिए संभव नहीं हो रहा था, क्योंकि रतन के बापू को देखने वाला घर में और कोई नहीं था। अतः वह चार-पांच दिनों से रतन को ही सामान बेचने बाजार भेजती थी। रतन अभीबिक्री का तरीका उतनी अच्छी तरह नहीं जानता था इसलिए उसके समानों की बिक्री संतोषजनक नहीं हो पाती थी। थोड़े पैसे लाकर जब माँ को देता तो माँ चिंतित होजाती थी। उसे लगता था कि इतने कम पैसों में कैसे वह घर- खर्च संभालेगी और कैसे अपने पति का ईलाज करवाएगी। रतन भी अभी ग्यारह साल का ही था उसे कैसे डांटतीऔर कहती कि उसमें बिजनेस का हुनर नहीं है। इसलिए वह तकलीफोँ को जाहिर नहीं करती थी।

      दिवाली का दिन करीब आने पर रतन रोज़ टाइम से जा कर बैठने लगा था। किन्तु बिक्री कम होने पर उदास मन से घर आता था। अभी बड़ी दिवाली में दो दिन बाकी थे कि घर लौटते वक्त उसे उसके स्कूल की दोस्त रेशमा मिल गई। कहने लगी----"अरे रतन!कहाँ जा रहे हो टोकरी लेकर "

रतन-----"जा नहीं घर आ रहा हूँ। देख ना रेशमा लाख कोशिश करने पर भी मुझ से न तो खिलौने और न ही दीये बिक पाते हैं। माँ के लिए पैसे कम पड़ रहे हैं मैं क्या करूँ।

रेशमा------"देख तुझे बेचने नहीं आता। कल से मैं तेरे साथ चलूँगी। देखना कैसे सारा दीया फटाफट बिक जाएगा।

रतन----"अच्छा!मैं भी देखूँ जरा कैसे बेचती है"

    दूसरे दिन रेशमा टाई म से पहुँच गई। रतन रेशमा के  साथ अपने स्थान पर बैठ गया, जहाँ वह रोज़ बैठता था।

      रेशमा खुबसूरत बालिका थी। शोख और चंचल। कशिश कुछ ऐसी थी कि लोग बरबस उसकी ओर खींचे चले जाते थे। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते थे कि जिस दिन ये लड़की बड़ी हो जायेगी उस दिन गज़ब ढाएगी। रेशमा लोगों को आकर्षित करने के लिए आवाज़ लगाने लगी------

" आओ-आओ रंग-बिरंगे दीये ले जाओ

अपने घर को दीप-माला से सजाओ

झालर बत्ती की अब मत लगाओ

दीये जला कर लक्षमी को घर लाओ

आओ---आओ रंग बिरंगे दीये ले जाओ "

                 उसकी मोहक आवाज़ सुन सब उसकी दुकान पर आने लगे। इस तरह रेशमा ने रतन को सहायता कर दोस्ती का फ़र्ज अदा किया।

जब रतन दो तीन दिनों तक अच्छे पैसे माँ को देता रहा तब माँ ने कहा "--बेटा तुझे अब बिक्री करना आ गया"

रतन-----" नहीं माँ ये सब रेशमा के कारण संभव हो सका। "

माँ-----"तूने उसे घर क्यों नहीं बुलाया? "

मैं कम से कम धन्यवाद

तो देती उस बच्ची को "

रतन----"बुलाऊंगा माँ "!


 - डॉ मंजू लता , नोयेडा

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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