आखिर चाहती क्या है यह पीढ़ी?
जेन - जी की समसामयिक परिस्थितियाँ : एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषणात्मक अध्ययन
डॉ हंसा व्यास नर्मदापुरम
नेपाल, बांग्लादेश और अब अफ्रीका में जेन जी की क्रांति। आखिर चाहती क्या है यह पीढ़ी?
सन् 1997 से 2012 के बीच जन्मी पीढ़ी —जेन जी के नाम से जानी जाती है। यह वह पीढ़ी है जिसने आँखें खोलीं तो सामने स्क्रीन थी, जिसका जीवन के वास्तविक संघर्ष से न रिश्ता था न परिचय। जो खाना भी खाता तो स्क्रीन के साथ,सोता - जागता भी स्क्रीन के साथ। जिसने शब्दों से पहले स्क्रॉल करना सीखा। सत्य तो यह है कि यह डिजिटल युग की प्रथम संतान है — नेटवर्क्ड, नोइज़ी और नर्वस । तकनीक ने इन्हें सुविधा दी , गुदड़ी का लाल बना दिया , पर साथ ही एक अनोखा उपहार मनोवैज्ञानिक द्वंद्व भी बिन मांगे ही दे दिया।
नेपाल, बांग्लादेश और अफ्रीका में जेन-जी क्रांति का कारण भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, बेरोजगारी और घटते जीवन स्तर जैसे कई मुद्दों को लेकर उनकी गहरी नाराजगी है। ये विरोध प्रदर्शन, जो अक्सर सोशल मीडिया पर शुरू होते हैं, सरकारी कुप्रबंधन और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के खिलाफ एक मजबूत प्रतिरोध का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस पीढ़ी की कुछ प्रमुख मांगें और मुद्दे इस प्रकार हैं:
आर्थिक मुद्दे: युवा बेरोजगारी, घटते जीवन स्तर, और बढ़ती महंगाई युवाओं में सबसे ज्यादा निराशा का कारण हैं। उदाहरण के लिए: - बांग्लादेश (2024): छात्रों ने सरकारी नौकरियों में कोटा प्रणाली के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, जिसे वे भाई-भतीजावाद और भेदभावपूर्ण मानते थे। इस आंदोलन के कारण अंततः सरकार गिर गई।
अफ्रीका (केन्या, 2024; मेडागास्कर, 2025) : - युवाओं ने देश के बढ़ते कर्ज और महंगाई के साथ-साथ आवश्यक सेवाओं की कमी जैसे पानी और बिजली की कटौती के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया।
शासन और भ्रष्टाचार -जेन-जी सरकार में पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग कर रही है। वे राजनीतिक अभिजात वर्ग के भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और सत्तावादी रवैये से थक चुके हैं।
भारत में भी देश का कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है । शासकीय सेवा के लिए होने वाली परिक्षाओं की पारदर्शिता का आलम यह है कि अनेक परिक्षाएं आयोजित होने के दूसरे दिन निरस्त हो जाती है। अनेक वर्षों तक अपाइंटमेंट पत्र नहीं आते। रिजल्ट कोर्ट में तारीख पर तारीख के साथ बदलते रहते हैं । सोशल मीडिया से प्रभावित यह पीढ़ी अनेक मनोवैज्ञानिक दबावों के बीच झूल रही है।
सामाजिक असमानता से त्रस्त यह पीढ़ी एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहती है, जहाँ विशेषाधिकारों और धन का प्रदर्शन करने वाले "नेपो किड्स" की बजाय आम युवाओं को शिक्षा, नौकरी और गरिमा के लिए समान अवसर मिलें।
इंटरनेट और सेंसरशिप के साथ जीवन जी रही यह पीढ़ी डिजिटल युग में पले-बढ़े होने के कारण जेन-जी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इंटरनेट के अधिकारों को लेकर बहुत संवेदनशील है। नेपाल (2025) में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के बाद बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिससे सरकार को पीछे हटना पड़ा।
सार्वजनिक सेवाओं में सुधार चाहती है जेन-जी ।अफ्रीका में, विरोध प्रदर्शनों का एक बड़ा कारण सार्वजनिक सेवाओं की खराब स्थिति रही है। मोरक्को (2025) में, युवाओं ने स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा पर पर्याप्त खर्च न किए जाने पर नाराजगी व्यक्त की।
जागरूकता और लामबंदी से युक्त है यह पीढ़ी। सोशल मीडिया इन आंदोलनों के लिए एक शक्तिशाली उपकरण बन गया है। जेन-जी इंटरनेट के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रही है, विरोध प्रदर्शनों का आयोजन कर रही है और दुनिया भर के अन्य प्रदर्शनकारियों के साथ एकजुटता दिखा रही है।
यह पीढ़ी अपने भविष्य को लेकर अनिश्चितता से निराश है और एक ऐसी व्यवस्था को चुनौती दे रही है जो उनकी जरूरतों को पूरा करने में विफल रही है। उनकी मांगें केवल तत्काल समस्याओं को हल करने के बारे में नहीं हैं, बल्कि बेहतर आर्थिक अवसर, न्याय और सरकार से जवाबदेही के लिए एक व्यापक आह्वान है।
21वीं सदी का दूसरा दशक मानव सभ्यता के इतिहास में अभूतपूर्व तकनीकी, सामाजिक और सांस्कृतिक संक्रमण का काल है। इसी कालखंड में उभरती हुई पीढ़ी — जेनरेशन जी — न केवल डिजिटल संसार की प्रथम पीढ़ी है, बल्कि मानव मन के नव-संरचना की प्रतीक भी है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह पीढ़ी संवेदी अधिभार , सूचनात्मक दबाव और सामाजिक एकाकीपन जैसी चुनौतियों से जूझ रही है। संज्ञानात्मक व्यवहार पीछे छूट गया। भाव शून्य यह तकनीक पीढ़ी मशीनों के बीच पल रही है और युवा हो रही है।
मनोविज्ञान के क्षेत्र में एरिक एरिक्सन की पहचान बनाम भूमिका भ्रम , की अवस्था, जेन जी के अनुभव को स्पष्ट करती है। एरिक्सन के अनुसार किशोरावस्था से युवावस्था की दहलीज पर व्यक्ति अपनी पहचान की खोज में होता है।आज के डिजिटल युग में यह खोज वास्तविक जीवन से अधिक आभासी दुनिया में हो रही है। इसी कारण आत्म-अभिव्यक्ति और स्वीकार्यता के द्वंद्व ने इस पीढ़ी को भीतर से अस्थिर बनाया है
समसामयिक परिस्थितियों के बीच जेन जी की मानसिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करें तो यह पीढ़ी पहचान के संकट से जूझ रही है। जेन जी के जीवन का सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक संघर्ष “स्व-परिचय” से जुड़ा है। सोशल मीडिया ने उन्हें “दिखने” का अवसर तो दिया, पर “होने” का अर्थ धुँधला कर दिया। उनका आत्मबोध “लाइक्स” और “फॉलोअर्स” की संख्या से नियंत्रित होने लगा है। यह प्रवृत्ति आत्म-सम्मान की बाह्य निर्भरता को जन्म देती है।
संचार और एकाकीपन के द्वंद्व के बीच फंसी जेन जी ने डिजिटल संचार से संवाद के माध्यम बढ़ाए हैं, पर संबंधों की गहराई घटाई है। यह आभासी निकटता और भावनात्मक दूरी का युग है। मनोवैज्ञानिक रूप से यह कहलाता है -कनेक्टिविटी के बीच अकेलापन । जहाँ व्यक्ति जुड़ा हुआ तो है, पर जुड़ाव से विहीन है।
सफलता का दबाव और मानसिक थकान से बोझिल यह पीढ़ी हताश हैं, उदास है। सवालों से घिरी संवाद के लिए तरस रही है। प्रतिस्पर्धी समाज ने जेन जी को निरंतर “उत्कृष्टता” के प्रदर्शन के लिए बाध्य किया है।
परिणामस्वरूप एंजाइटी डिसआर्डर, बर्नआउट सिंड्रोम ,असफलता का डर जैसी अवस्थाएँ सामान्य होती जा रही हैं। यह “मानसिक स्वास्थ्य” के लिए गंभीर चेतावनी है। मूल्य परिवर्तन और अस्तित्वगत शून्यता की शिकार यह पीढ़ी नैतिकता को परंपरा के बजाय अनुभवजन्य दृष्टि से परिभाषित करती है। मनोवैज्ञानिक रूप से यह पोस्टमार्डन वेल्यू रिलेटीज्म का लक्षण है,।
यहां यह बात अच्छी है कि यह पीढ़ी पुराने मेंटल हेल्थ के लिए थेरेपी, माइंडफुलनेस, और आत्म-अभिव्यक्ति को स्वीकारती है। जेन जी का मनोवैज्ञानिक परिदृश्य संक्रमण और प्रयोग का क्षेत्र है। यह वह पीढ़ी है जो तकनीक की तेज रोशनी में स्वयं की छाया खोज रही है।” उनकी सबसे बड़ी चुनौती है — *डिजिटल प्रामाणिकता और मानवीय संतुलन को एक साथ साधना।
जेन जी की कार्यप्रणाली पर यदि हम नजर डालें तो -
1. जेन जी की आत्म-छवि बाह्य मान्यता पर अधिक निर्भर है।
2. डिजिटल नेटवर्किंग से सामाजिक जुड़ाव बढ़ा है, पर भावनात्मक संबंधों की गहराई कम हुई है।
3. निरंतर तुलना और प्रतिस्पर्धा ने उनके मानसिक स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।
4. मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ने के बावजूद, व्यावहारिक संतुलन प्राप्त नहीं हो पाया है।
एरिक्सन के अनुसार युवावस्था आत्म-पहचान की खोज का समय है। जेन जी के लिए यह खोज “आभासी व्यक्तित्व” और “वास्तविक स्व” के संघर्ष में फँस गई है। उनकी पहचान अब डिजिटल प्रदर्शन का परिणाम बन चुकी है — जिससे स्वयं की प्रमाणिकता पीछे छूट जाती है। लगातार सूचना प्रवाह ने ध्यान, एकाग्रता और निर्णय-क्षमता को प्रभावित किया है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह संज्ञानात्मक थकान उत्पन्न करता है — जहाँ मस्तिष्क अधिक उत्तेजना के कारण विश्राम की मांग करने लगता है। सोशल मीडिया ने आत्म-संतोष को कम किया है। अन्य की सफलता” को सोशल मीडिया पर देखकर आत्ममूल्यांकन का स्तर असंतुलित हो रहा है । जिससे चिंता और आत्मसम्मान में कभी जैसी समस्याएं होने लगी है। यह मानसिकता स्वतंत्रता तो देती है, पर साथ ही अस्तित्वगत शून्यता भी उत्पन्न करती है —अर्थात “स्वतंत्र होकर भी असंतुष्ट” रह जाने की स्थिति।
फिर भी यह पीढ़ी भावनात्मक खुलापन , लिंग समावेशिता , मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता के क्षेत्र में अग्रणी है। वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं, सहायता लेते हैं, और समाज में सहानुभूति का नया आयाम जोड़ते हैं।
- डॉ हंसा व्यास नर्मदापुरम
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