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लघुकथा : दीपावली - लतिका जाधव, पुणे (महाराष्ट्र)


 

लघुकथा : 

दीपावली 

 - लतिका जाधव, पुणे (महाराष्ट्र)

      नवरात्रि की गहमागहमी से ही विज्ञापनों का भी अपना एक आकर्षक दौर शुरू हो जाता है। हर तरफ़ फैले विज्ञापनों से शिवानी भी अपने आप को बचा नहीं पा रही थी। शिवानी को आफिस में दिवाली की तीन दिन से ज्यादा छुट्टी नहीं मिलती थी। उसने जो ईएमआई पर लिया घर है। उसको दिवाली पर सजाने के लिए उसके पास समय ही नहीं है। दिनेश भी लगातार अपनी कंपनी में प्रमोशन के लिए मेहनत कर रहा था। उन दोंनो ने शादी के बाद अपनी मेहनत से यह घर ख़रीदा था। वह भी यही सोचकर कि किराया देने से ईएमआई अच्छा है। अब तनिक कुछ आराम से जिंदगी जी सकते हैं।

   केवल यह दोनों ही नहीं अब हर नौकरी करने वाले वह भी घर से दूर रहनेवाले दंपतियों की जिंदगी ऐसी ही है।लेकिन जीवन ऐसा है कि वह अपने साथ अतीत को भी हमेशा जोड़े रहता हैं। 

     दिवाली हर गरीब-अमीर के लिए खुशियों की उम्मीद से भरा त्यौहार होता है। हर तरह के ख़रीदारों के लिए दिवाली का बाज़ार और भीड़ का इक अलग सा नज़ारा होता है।

शिवानी ने तो आनलाईन दीपक, चमकीला सजावट का सामान आर्डर कर दिया। मिठाई के लिए भी अलग से बुकिंग कर दी। कपडों की ख़रीदारी का उसका कोई मन नहीं था।  

इधर दिनेश के आफिस से कुछ लोग इन दिवाली की छुट्टियों में कहीं बाहर घूमने का मन बना चुके थे। दिनेश को भी उन्होंने अपने साथ शामिल कर लिया था।

शिवानी शाम को भीड़ भरी रास्तों से लौटते समय  देख रही थी। हर मोड़ पर दिवाली के लिए छोटी- छोटी दुकानें सजी हुई है।  रंगोली, पटाखों, दीपकों से लदे ठेले सजे थे। उसके मन में आया जाकर देखूँ  लेकिन फिर वह रूक गई कि देर हो जाएगी। फिर अपनी स्कूटी से बिना रूके वह घर आ गई।

घर में दिनेश नहीं था।  कहीं बाहर गया था जो अभी तक लौटा नहीं था। वह सोचने लगी। दिवाली पर यहाँ दिया लगाकर दूसरे दिन मां के पास फिर ससुराल चले जाएंगे। मायका और ससुराल एक ही गांव में था। 

दिनेश बाहर से लौटा और शिवानी को खुशी-खुशी बताने लगा, “मैंने हमारे लिए इन छुट्टियों में घूमने का बंदोबस्त कर लिया है। दिवाली के दूसरे दिन हम और हमारे आफिस के सभी लोग पहाड़ियों पर जाएंगे”

शिवानी को सुनकर बड़ा अजीब सा लगा, “दिनेश, मुझे पूछ तो लिया होता। मां और आपके घर के लोग हमारी राह देखेंगे। मैंने सबको कह दिया है। हम दिवाली के दूसरे दिन आ रहे हैं”

दिनेश को अब पहाड़ियों की हवा का रूख़ बैचेन कर रहा था। वह परेशान हो गया, “हमारे घर तो हम हमेशा जाते हैं। अब बड़ी मुश्किल से हमने यह तय किया है। आप कोई दलील देकर प्लान ख़राब मत करो”

शिवानी चुप रह गई। उसने अपने आफिस में भी यहीं नज़ारा देखा था। अब रिश्तों में दूरियाँ आ गई है। लेकिन अब तो हमारे अपने मां- बाप से भी दूरियाँ बनने लगी है। वह दिनेश की बात पर बहस करने से बचती रही थी। उसने तो एक महिना पहले से ही मां और ससुराल वालों के लिए जो लेकर जाना है, ख़रीद रखा था।

वह शाम को जब वापस आ रही थी, चौकीदार ने आवाज़ देकर बुलाया। “दीदी आपका पार्सल लेकर जाना”

शिवानी ने देखा, आनलाईन सजावट का सामान आ गया था। उसने सामान उठाया। 

रात के दो बजे तक उसने घर को जितना सजा सकती थी, सजाया। दूसरी ओर मां के घर जाने के लिए अपनी बैग भी तैयार कर रही थी। दिनेश की शिफ्ट सुबह ख़त्म हो जाएगी। वह आयेगा और मैं ड्यूटी पर चली जाऊंगी। अगले तीन दिन छुट्टी। शिवानी अपने एक- एक पल का सही उपयोग कर रही थी। 

दिनेश सुबह ड्यूटी से आ गया। शिवानी ने उसका नाश्ता- खाना सब तैयार कर रखा था।“दिनेश मैं जा रही हूं। रात में दीपक जलाना है। जल्दी मत जाना।आज मैं जल्दी लौटूंगी”

दिनेश इतना थका था कि उसने शिवानी की बातों को सिर हिलाकर मंजूरी दी।

शिवानी अपना टिफिन लेकर दौड़ती हुई निकली।

शिवानी इन दो सालों में शहर, नौकरी, घर, रिश्तों में अपने आप को ढाल रही थी। हर हाल में सबको जोडऩे मे लगी थी।

शाम होते- होते आफिस में सभी के मन मे दीपावली अपने आप प्रकट हो रही थी। सब लोग अपने बजट पर, महंगाई पर, होनेवाला खर्चा इस सिलसिले में बात कर रहे थे। तो कहीं एक दूसरे को सलाह और खरीदारी पर बातें चल रही थी।

शिवानी घर लौटी तो दिनेश जा चुका था। उसने थकान के बावजूद अपने आप को तैयार किया। नया पोशाक पहनकर मिट्टी के दियों को प्रज्वलित किया। रंगोली का तैयार स्टीकर दरवाज़े के सामने चिपकाया। फूलों की मालाएं आते समय बाज़ार से लेकर आई थी। उनको दरवाजे, खिड़कियों पर घर के हर कोने में सजा दिया।

उसने बाल्कनी से बाहर देखा सबने अपनी मर्जी के अनुसार दिवाली पर रंगोली के रंगों और दियों के प्रकाश को बिखेरा था। थकान दूर करता और प्रसन्नता बिखेरता उस समय का वह सुखद दृश्य था।दिनेश को आज भी रात ड्यूटी करनी थी।फिर कल से तीन दिनों के लिए छुट्टी थी।

शिवानी ने मां को वीडियो फोन किया, “मां मुझे पहले घर का आंगन दिखाओ। भाभीजी ने कैसा सजाया हैं”

मां मोबाइल को आंगन में ले गई। भाभीजी भी आ गई थी। कैमरा सब जगह घूम रहा था।

“शिवानी कल जल्दी आ जाना। हम आप दोनों की राह देख रहे हैं” भाभीजी मुस्कुराते हुए बोली।

शिवानी ने कैमरा अपने घर की सजावट पर घुमाया।“मां मैं ज्यादा कुछ कर नहीं सकी। बहुत थक जाती हूँ”

मां को पटाखों की आवाजों में क्या सुनाई दिया पता ही नहीं चला कि वह कानों पर हाथ रखते हुए बोली, “कल दोनों आ जाओ।हम आपका इंतजार कर रहे हैं”

“जी, मां कल आ जाएंगे” शिवानी ने फोन रख दिया। 

अब उसके आसपास भी सब तरफ़ से पटाखों की आवाजें और उनमें से उठता धुआं और घुटन महसूस होने लगी थी। तभी दिनेश का फोन आया, “शिवानी, मुझे घर से फोन आया था।मां की बातें सुनकर मैंने घर जाने का तुम्हारा फैसला ठीक समझा। हम कल घर जा रहे हैं। पहाड़ों पर बाद में जाएंगे”

शिवानी को तो यह सुनकर घर क्यों जाना है? बस इस बहस से मुक्ति का आनंद मिला। वह बाल्कनी को बंद करते हुए सोच रही थी। हर घर में होती होगी अपनी - अपनी दिवाली। सबके दिलों में उमंगों- उम्मीदों को जगाने वाली दिवाली।

अब उसके मोबाईल पर भी शुभचिंतकों के भेजे हुए ‘शुभ दीपावली’ के संदेशों का रिंगटोन की आवाजों के साथ आगमन होने लगा। 

उसने भी अपना मोबाइल उठाया। सबके लिए अपनी तरफ़ से भी मुस्कुराते हुए संदेश भेजा, ‘शुभ दीपावली’


 - लतिका जाधव, पुणे (महाराष्ट्र)



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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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