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शब्द पुष्पांजलि ∆ डॉ रामदरश मिश्र का निधन साहित्य की अपूरणीय रिक्तता -डॉ घनश्याम बटवाल मंदसौर



शब्द पुष्पांजलि ∆

डॉ रामदरश मिश्र का निधन साहित्य की अपूरणीय रिक्तता


(डॉ घनश्याम बटवाल मंदसौर)


देवउठनी एकादशी के पूर्व ही हिंदी और भोजपुरी साहित्य के एक स्थापित हस्ताक्षर का महाप्रयाण हुआ 

साहित्य संस्कृति और समाज के साथ लिखने पढ़ने वालों में यह खबर दुःख के साथ सुनी गई ।

सच है कि एक सौ साल से अधिक उम्र और सात दशकों की साहित्य यात्रा अब मौन हो गई ।

गोरखपुर के डुमरी में जन्में डॉ मिश्र ने लेखन की विभिन्न विधाओं में खूब लिखा और सार्थक लिखा ,कालजयी लिखा।

कविता , कहानी , उपन्यास, गज़ल, गद्य, पद्य सहित अनेक रचनाएं रची ओर धीरे धीरे अन्ततः उनकी कलम थम गई ।

दूसरा घर , जाल टूटा हुआ , अपने लोग , बबूल और कैक्टस, बिना दरवाजे का मकान , सहचर है समय आदि कई उपन्यास कहानी संग्रह लिखे । 

एक कविता की पंक्तियां बेहद प्रेरक लगी " मत उदास हो , कल, फिर सुबह नई होगी" आशा की किरण बन गई इसी तरह " बनाया है, मैं ने ये घर धीरे धीरे" यह संतोष और धैर्य से जुड़ता प्रतीत होता है 

ओर यह उनके जीवनकाल के उत्तरार्ध में प्रमाणित भी हुआ ।

सात दशकों तक लिखने पढ़ने के बाद  2011 में उन्हें व्यास सम्मान , 2015 में आपको साहित्य अकादमी अवॉर्ड, 2021 में डॉ मिश्र को सरस्वती सम्मान और अभी 2025 में आपको पद्मश्री अवॉर्ड प्रदान किया गया ।

एक मिडिया साथी ने पिछले दिनों पद्मश्री अलंकृत होने पर संवाद किया उनके शब्दों में 

सौ बरस के किसी व्यक्ति से मिलना, केवल मिलना नहीं होता, एक दीक्षा होती है। एक पूरी शताब्दी को आप सुन रहे होते हैं। परंपरा को समझ रहे होते हैं। जीवन की कूची जितने रंगों से भरी होती है, सब देख रहे होते हैं। 

सौभाग्य रहा कि मैं रामदरश मिश्र जी के जीवन और लेखन पर उनसे बात कर सका। सौ की वय में वे जिस तरह शब्दों से आत्मीय संवाद रखते थे, दुर्लभ है। 

उन्होंने बहुत अच्छी बात कही थी कि मैंने कभी महत्वाकांक्षा नहीं पाली। अपना काम करता रहा। 'धीरे-धीरे' यही मेरा ध्येय वाक्य रहा। यही शायद उनकी दीर्घायु, सादगी और लेखकीय ऊर्जा का रहस्य था। निस्पृह। कर्मशील।

हिंदी साहित्य की दुनिया में दशकों तक किनारे पर खड़े वे धीरे-धीरे काम करते रहे। जीवन के उत्तरार्ध में वह सब मिला जिसे पाने की बहुतों की कामना ही रह जाती है। 

डॉ रामदरश जी एक पूरी परंपरा थे। सहजता की। जीवनोत्सव की। कर्मशीलता की। 

उनका जाना हिंदी शताब्दी की एक भरी-पूरी  उपस्थिति की रिक्तता है। जैसे, घर के बुज़ुर्ग का जाना है। 

श्रद्धांजलि। नमन।

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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