काव्य :
प्रदूषण
जल को पीलिया हो गया, हवाओं का है दम घुट रहा। धरा का सीना चाक हो रहा, अग्नि का शमन हो रहा।
हो रहा बीमार मौसम, देख आकाश झमाझम रो रहा। दर्द है कि प्रकृति का, निरंतर बढ़ता जा रहा।
काट-काट भुजाएँ, तन भी काट रहे।
स्वार्थपूर्ति के लिए मानव ,जंगल सारे उखाड़ रहे हैं ।
सौंदर्य की चाह में ,दंश पहाड़ों को दे रहे हैं
चोट सीने पर करके,कंक्रीट के जंगल बसा रहे।
नंदनकानन क्या उजड़े, मौसम का मिजाज ही बदल गया।
प्रदूषण के विष से,धरती-आकाश रुग्ण हुआ।
जन्मते ही बालक, नाना बीमारियों से घिर गये।
उम्र के पहले पढ़ाव पर ही ,काल का शिकार हो गये।
श्वास धौंकनी बन रहीं,धड़कनों में दरार पड़ी।
हड्डियों का जूस निकल गया, रक्त में शर्करा घुल गई।
उम्र कभी सौ पार होती थी, आज आधी हो गई।
नौजवानी प्रदूषण के कारण, क्षतिग्रस्त हो गई ।
- डा.नीलम, अजमेर
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