वैचारिक चिंतन :
सन्यासी कौन
- ऊषा सक्सेना
वरिष्ठ साहित्यकार , मुंबई (महाराष्ट्र)
फिर एक प्रश्न यक्ष प्रश्न बन कर खड़ा मन में सन्यासी कौन ? हम किसे सन्यासी कहें ! सन्यास का वास्तविक अर्थ क्या है ।जब तक हम इसे नही समझेंगे तब उसके महत्व को कैसे समझ पायेंगे ।वैरागी ,वीतरागी साधु सन्यासी और संत महात्मा सभी को एक ही समझेंग ।अत: आवश्यकहै सबसे पहले सन्या सी के अर्थ को समझना ।सन्यासी का अर्थ है कि- सम+न्यास । अर्थात सम्यक प्रकारसे जिसने अपने आपको रख लिया हो । सनातन धर्म के अनुसार व्यक्ति का चौथापन वृद्धावस्था का उसे सन्यिसी होने के लिये प्रवृत्त करता था ।
कहावत है - "मूंड़ मुड़ाये भये सन्यासी " अर्थात घर परिवार सब कुछ छोढशड़ कर सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर वैराग्यधारण करना ।विरागी और वीतरागी होखर ही तो वह अपनी सभी कामनाओं का परित्याग कर सन्यासी हो पायेगा ।यदि उसका मन सांसारिक भोग विलास में लिप्त है तो फिर सन्या लेनै और सन्यासी होने के ढोंग रचने का क्या अर्थ ? सन्यासी पुरूषतो कीचड़ मे खिले कमल की तरह उसमें रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है ।वह न तो जीने की इच्छा करता है और न मृत्यु की कामना ।केवल ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक मृत्यु की प्रतीक्षा करता है ।
कहीं भी किसी भी प्राणी मात्र के ममति का भावव न रख कर सभी के प्रति समता काभाव रखता है । प्रकृति के बीच रहकर ही प्रकृति दत् कंद मूल फल आदि खाकर ही अपना निर्वाह करता है ।वर्षाकाल के चार माह छोड़ कर विचरण करते हुये ज्ञानार्जन करता और अपनेज्ञानका सदुपदेश के द्वारा जन चेतना को जागृत कर मानव कल्याण के लिये सत्यं शिवं और सुन्दरम् में ही अपना समय व्यतीत करता है ।सांसारिक सुख सुविधाओं और भौतिकता के प्रति उदासीन रह कर अपने मन को संयत कर संयम पूर्वक निष्काम भाव से प्रभू इच्छा कहते हुये आत्म संतुष्टि का भाव रहता है ।इसका सही भाव कहें तो इच्छाओंका परित्याग कर मृत्यु के प्रति प्रेम और उसकी प्रतीक्षा ही इसका मूल उदद्देश्य होता है ।तटसस्थता ,इच्छाओं की निवृत्ति निस्संगता और निर्लिप्तता एवं अनासक्ति के द्वारा सभी कार्यों मेंसमदर्शिता दर्शाना ही इनका मूल भाव है ।अपने सदुपदेश द्वारा ही यह लोगों का मार्ग दर्शन करते हैं इसीलिये जनमानस में इनके प्रति सदा ही श्रद्धा का भाव रहता है ।
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