काव्य :
नन्ही जल धारा
नन्ही सी जल धार,
बड़े उत्साह से चट्टानों से,
कूदती फाँदती,
आ ग ई कटीली पथरीली राह में
लहूलुहान था मन, देख राह में
अपनी दुर्दशा ,
पर क्या करें, बढ़ना और बहना,
ही अपनी नियति है,
अब लौटना संभव नहीं।
सुंदर स्वच्छ दुग्ध धवल सा तन मन मेरा, भर गया मानव प्रदत्
विकृतियों से।
संसार का अपशिष्ट, झूठे ढकोसले, पवित्र नदियों के नाम पर गहन शोषण।
प्यासे रहे वनचर, नभचर, नहीं
किसी ने जाना दर्द मेरा।
मेरे, सुवासित, निर्मल जल का
अंत तो देखो।
मिला आलसी, दंभ से गर्वित
घोर गर्जना का अधिकारी
खारापन देने को आतुर महा उदधि,
हे विधि जल की स्वच्छ धार
पर कैसा जग का निर्मम प्रहार।
मै फिर भी प्रसन्न वदना देती हूँ
जग को उत्तम जल धार।
उषा सोनी बैरागढ भोपाल
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