काव्य :
दुनिया, कविता, मैं!!
कविता को भी तुम लहने दो,
मन-भाव-तरल तुम बहने दो।
विष व्याप्त धरा के कण-कण में,
संताप-गरल तुम सहने दो।।
क्यूँ कर कविता शर्मिंदा हो,
लेखक सचेत जो ज़िंदा हो।
क्या ही पग-बाधा रोकेगी,
आकाश स्वछंद परिंदा हो।
उड़ने दो पाँखों को फैला,
एक नयी पहल तुम गहने दो।।
मिलने को तो बाज़ार मिले,
बिकती दुनिया, क्या सार मिले।
चमड़ी-दमड़ी, अद्धा-पौआ,
नर-गिद्धों के व्यवहार मिले।
क्या जा कह दूँ मैं कविता से,
है चलन यही, तुम रहने दो।।
बिकने के बहुत तरीके हैं,
लगने हैं दाम, सलीके हैं।
सोच चलो क्या ध्येय तुम्हारा,
कितने इस शिखर सरीखे हैं।
छल कलम नहीं तुम कर बैठो,
ये लोभ-भीत तुम ढहने दो।।
मानव आडम्बर, है माना,
नित पाप चढ़ा सर, है माना।
कतरा-कतरा है ज़हरीला,
धरती ये अम्बर, है माना।
शंकर बनना तेरे हिस्से,
जग क्या कहता, तुम कहने दो।।
बिन शोणित धरती शुद्ध न हो,
सबने चाहा ये युद्ध न हो।
मिलती क्या राह अलापों से,
जब क्षमाशील भी क्रुद्ध न हो।
शब्दों का पारावार बना,
दहती दुनिया, तुम दहने दो।।
बिन डूबे मोती का मिलना,
बिन बल के पर्वत का हिलना।
सब सरल नहीं होता जग में,
बिन बोये पादप का खिलना।
अब्धि मथे ही पीयूष मिले,
मह रही कलम, तुम महने दो।।
©रजनीश "स्वच्छंद",दिल्ली