काव्य :
कौड़ियों के भाव
नोन,तेल,लकड़ी
दूर खड़ी
इतरा रही है,
आम आदमी की
पहुँच से दूर
जा रही है,
भाव तो आटे,दाल,
चावल के भी
आसमान चढ़ गये,
नलकों से निकल
पानी बोतलों में बंद हो,
अपने दाम बड़ा रहा।
पेट की आग
आदमी को तड़पाने
लगी,
गली-गली भूख
भीख माँगने लगी,
बिकने लगी देह
बाजार में,
बच्चे भी माँ के
आँचल से निकल
पराई गोद में
किलकने लगे।
अर्थव्यवस्था के
पायदान पर
जरूरत के सामान
मँहगे हो गये,
बस आदमी ही के
दाम कौड़ियों के भाव
लग रहे।
- डॉ नीलम ,अजमेर
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