ad

लोक पर्व :- मामुलिया - ऊषा सक्सेना-मुंबई


 लोक पर्व :-  मामुलिया 

भोर भये सखी फुलवा 

बीनन चलो आज मामुलिया खेलेंगे । 

   बुंदेलखंड क्षेत्र का कुंवारी कन्याओं द्वारा प्रकृति के माध्यम से बेर की कंटीली झाड़ी को भी रंग बिरंगे फूलों से सजाकर सामूहिक रूप से कुंवार मास के कृष्ण पक्ष पूरे पंद्रह दिन तक  पितृपक्ष में इसे खेलना हिलमिल कर गीत गाना , सामुदायिक एवं सद्भावना प्रतीक है यह पर्व ।बिना किसी भेदभाव के क्रमश: सभी के घर जाकर सामूहिक रूपसे मनाना ।अपने आपमें एक उदात्त संस्कृति और संस्कारों का बीजा- रोपण था ।नारी शक्ति को उसे पहचानने की शक्ति और  क्षमता देना ।  यह जीवन कितना भी कष्टमय कंटकाकीर्ण क्यों न हो वह उसे अपने प्रेम और स्नेह के जल से सजा संवार कर सुंदर बना ही  लेगी की भावना का सुंदर अभ्युदय ।

अपनी संतान में संस्कारों के बीज बोकर वह जीत जाती है‌ । बेर की कंटीली झाड़ी जैसा जो उसे अपनी चुभन देते हैं फिर भी वह उन्हें अपनी सहनशीलता के दम पर रंग बिरंगे फूलों से अंत में सजाकर चित्रांकित कर ही देती है एक सुंदर  रूप देकर अपने सपनों में कल्पना के रंग भरकर सजीव हो उठता है उसका सुंदर सलोना सपना ।

आजकल की आधुनिक पाश्चात्य जीवन शैली लील गई हमारे लोकपर्व और उसके रीति रिवाज परम्परायें जो अब केवल  कुछ ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित रह गई हैं ।आजावश्यकता है हमें उन्हें सहेज कर रखने की ।इन सभी के पीछे छिपे हैं मानव जीवन के वह गुप्त रहस्य जिन्हें हम प्रकृति के सामीप्य में उसके माध्यम से सीखते हैं ।

आईये मामुलिया के विषय मे जानें :-

प्रकृति केअपने अनोखे रंगों से सजती है हमारी मामुलिया । मामुलिया शब्द ही मामूली ‌से बना है अर्थात वह साधारण सी वस्तुयें जिसे हमें कहीं खोजने नहीं जाना हमारे आसपास । घर के कच्चे आंगन ,फर्श या गमले या दीवारों पर इसका चित्रांकन किया जाता है । यह निमाण और मालवा में संजा के नाम से एवं बुंदेलखंड में मामुलिया के नाम से उस क्षेत्र की कुंवारी कन्याओं द्वारा ही सारी सामग्री जुटा कर खेला जाता है । सामूहिक रूप से सभी कन्यायें पहले  प्रात:उठकर एक दूसरे को साथ लेकर रंगबिरंगे फूल मामुलिया को सजाने के लिये चुनकर लाती हैं ।इसके बाद उस स्थान को जहां उन्हें पूजा करना है स्वयं ही छुही मिट्टी से पोत कर एवं गोबर से लीप कर शुद्ध करती हैं इसके पश्चात यदि दीवाल पर चित्रांकन करना है तो सफेद छुही मिट्टी गोबर  और गेरू का प्रयोग करते हैं । सूर्य डूबने के पहले ही सभी एक स्थान पर एकत्र होकर उस बेर की कंटीली झाड़ी को गाड़ने के पहले उस स्थान पर सुंदर चौंक पूरती हैं उसके बद उसे गोबर की ढेरी के ऊपर गाड़कर उसके चारों ओर सुंदर चित्रांकन करती घेरा बना कर रंग बिरंगे चुन कर लाये हुये फूलों की पंखुड़ियों से सजा कर उसकी  हल्दी अक्षत रोली से पूजा करते हुये धूप दीप नैवेद्य चढ़ाकर सभी आरती करती हैं करते हुये मामुलिया के गीत गाती हैं ।मामुलिया प्रतीक है प्रकृति देवी का जिसका अपने धरती पुत्र कृषक वर्ग से गहरा नाता है ।उसे किसी भी श्रम के कार्य को करने में संकोच नही तभी तो कन्यायें अपने गान में अपने भाई का गुणगान करते हुये ही कहती हैं कि :-

मामुलिया भैया माली घर नौकर 

लईयो रतन जड़े फूल 

सजइयो नौंनी मामुलिया ।

मामुलिया का भैया ,बज़वा घर नौकर 

लईयो सुनहलो चीर ,ओढ़ईयो मेरी मामुलिया ।

मामुलिया का भैया  हलवैया घर नौकर 

लईयो पेड़ा और बर्फी जेंवईयो मोरी मामुलिया ।

इस प्रकार से मामुलिया को सजाने संवारने का कार्य तो भाई का है जो सदा उसके सु दुख में साथ रहता है ।एक सुंदर परिकल्पना रीति रिवाज और परम्पराओं के माध्यम से शिक्षा देती ।

   अंत में नव रात्रि के पूरव पित।विसर्जन के दिन मामुलिया का भी किसी समीप के नदी या तालाब में सामूहिक रूप से गा बजाकर विसर्जन करते हुक्षये वही कन्यायें गीत गाती हैं मामुलिया के आगये लिवौआ ठुमक चली मेरी मामुलिया ।विदा करने के पश्चात सभी का मन दुखी उनकी एक सखी जो विदा होगई ।यह कहते हुये घर वापिस आती हैं पीछे मत देखो पन्ना पन्था के भूत लगे ।।इसके सारगर्भित संदेश अब अपने अतीत को मायके को भुलकर अपने नवजीवन को देखो और उसे सजाओ संवारों ।यही उनका मूल उद्देश्य खेल के माध्यम से ही संस्कारों की शिक्षा ।

- ऊषा सक्सेना-मुंबई

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

Post a Comment

Previous Post Next Post