काव्य :
ये क्या देखा???
हमने दुनिया में हर शहर देखा,
इंसां इंसां क्या हर पहर देखा।।
होता आदम भी इस तरह ही क्या?
दोषी मैं हूँ या ये जगह ही क्या?
कितना सोचा वो आदमी मिलता,
जो भी सोचा है बे-वजह ही क्या?
आँखें क्यूँकर ये रुक न जातीं हैं,
चप्पा-चप्पा यूँ हर डगर देखा।
हमने दुनिया....
बाबुल-गुड़िया तो बस कहानी है,
कल को सबको ही तो सुनानी है।
सच ये सच से भी तो भयावह है,
किसको किस्सा ये मुँह-ज़बानी है?
कैंडल-बैनर तो फब्तियाँ मानो,
डर का आलम ही हर नज़र देखा।
हमने दुनिया....
बोया जो कल वो आज काटेंगे,
खोया जो कल वो आज क्या देंगे?
कह दो लोगों उम्मीद क्या बाक़ी?
हारे नारे भी क्या नया देंगें?
हम भी शामिल थे भीड़ में लेकिन,
क्या ही करना था, पर ठहर देखा।।
हमने दुनिया...
ग़ालिब-पन्ने भी अब लजाते हैं,
किसकी बारिश में जा नहाते हैं।
क्या था लिखना, था और वादा क्या?
क्या ही लिखते हैं और गाते हैं।
जीना-मरना जो पाक लगता था,
शब्दों में ही तो हर ज़हर देखा।।
हमने दुनिया...
वो तो अच्छा है भौंकता कुत्ता,
कुछ तो सच्चा है भौंकता कुत्ता।
हम तो गिरते हैं, और गिरते हैं,
हमसे अच्छा है भौंकता कुत्ता।
कुछ तो कहते भी हम ज़ुबां से ही,
हम थे पत्थर, जो डर-कहर देखा।।
हमने दुनिया...
©रजनीश "स्वच्छंद",दिल्ली