काव्य :
भगवत गीता-पंचम अध्याय
कृष्णभावनाभावित कर्म
अर्जुन अभी भी संशय से भरे
कृष्ण कहें ना हो ज्ञान से परे ?
क्या उत्तम है प्रभु?
कर्म का परित्याग ,
या भक्तिमय कर्म?
मुझे ना उलझाये,
निश्चित रूप से समझाये ।
कर्मयोगी कैसे बने?
भक्तिपूर्ण कर्म ही श्रेष्ठ,
मन इन्द्रियों का संयम
योग ध्यान से संभव,
शरीर ईश्वर का उपहार,
इससे संपन्न कर्म भी
उन्हे कर दो न्यौछार ,
जो उद्देश्य जीवन का,
आत्मसाक्षात्कार का,
बैकुंठ धाम का-ना भूले,
प्रभुप्रेम मे वो सदा झूले,
प्रिय वही संसार का।
कर्मयोगी सुखी भी ,
संभव शुद्धीकरण भी ,
कर्मयोग से कटते पाप ,
कई जन्म जन्म के,
कर्मफल त्याग की भावना कठिन
कैसे आत्मसात करूँ इसे कृष्ण ।
फल कैसे हो तुम्हारा ,
जब कर्ता पालनहार ,
जीव,ईश्वर,प्रकृति ,
तीन कर्ता कुन्ती कुमार।
सिर्फ इच्छा करना ही,
जीव की क्षमता ।
इच्छाएँ अच्छी या बुरी ,
कर्मों के लेखा जोखा पर,
प्रभु प्रकृति से करवाते पूरी
संयोगों का निर्माण करती,
देती कर्मफल,रचती माया।
किराये का घर ये तन,
भूल जाता लक्ष्य ये मन
आसक्ति में फंस जाता ,
जन्म -मृत्यु की जीवन यात्रा में,
इस ज्ञान को जीवन में उतार
हो जाता भवसागर से पार ,
अशांत संसार में शांति पाता,
कर्मयोगी ही"पंडित"कहलाता।
इच्छाएँ दुःख की उद्गम हैं
कर्मयोगी नही फंसता,
समभाव व्यवहार, हर
जीव मे "आत्मा"दर्शन ,
पंडित का यही लक्षण,
ईश्वर समभाव रखते,
सूर्य की किरणों जैसे,
बादलों के पानी जैसे ,
सब के लिए समान ।,
मोक्ष को जो लक्ष्य बनाये
उसे ही करते मुक्ति प्रदान।
और भी जरूरी आज ये ज्ञान
भगवत गीता है महान।
- रानी पांडेय
रायगढ़ छत्तीसगढ।
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