काव्य :
आज की लड़की
लाली नहीं लगाती वो
बिंदी नहीं सजाती वो
पायल बिछुए चूड़ियां झुमकों से है
मीलों दूर नजर आती वो!
आँखें उसकी कजरारी हैं नूर से
पर काजल की रेखा नहीं है
सिंदूर लगाते मैंने उसे देखा नहीं है।
होठों पर कोई भी रंग नहीं बस हल्की सी मुस्कान रखती है।
जब भी सजती संवरती है, बस खुद के लिए करती है।
तो क्या दिखावे बिन वो कम सुहागन लगती है!
वो जींस टॉप पहनती है।
बालों को खोल कर लहराती है।
खुल के हंसती खिलखिलाती है।
कपड़े लत्ते से तो थोड़ी मर्दाना नजर आती है।
हील के जूतों का उसे शौक नहीं
किसी की बदतमीजियों से उसे खौफ नहीं।
गलत को मुंह पर गलत कहने का होंसला रखती है।
ये बिंदास लड़की की छवि उसपर खूब फबती है।
क्या लड़कियों जैसा न दिखने से वो कम स्त्री रह जाती है!
पड़ोसियों की चुगली का वो किस्सा नहीं है।
फालतू की बातों का वो हिस्सा नहीं है।
हुनर को अपने वो अपने हाथों से तराशती है।
अपनी सारी जिम्मेदारियों को तसल्ली से निभाती है।
कुछ भी कर गुजरने का जिगरा है उसमें।
अपने अंदाज से वो दुनिया जीत सकती है।
अपनी चोटी में बांध कर धरती खींच सकती है।
बहरे लोगों को थोड़ी ऊंची सुनाई देती है।
समाज की जंजीरें उसकी जेब में दिखाई देती हैं।
क्या दुनिया की रफ्तार से तेज होने से वो कम संस्कारी बन जाती है!
- भारती वशिष्ठ , सोनीपत