काव्य :
ग़ज़ल/ग़ुल खिला दे
****
ग़ुल खिला दे कब तलक बैठा रहेगा खार में|
शातिरों का हो चुका कब्जा हर इक बाज़ार में
*
कौन से ईमान की चर्चा करें भी आज हम
आजकल ईमान बिकता है सरे बाज़ार में|
*
आदमी की खाल ओढ़े भेड़िये जब चल रहे
फर्क कैसे हो भी मालुम रहबरों-गद्दार में|
*
इक नदी जो आब ले कर कल हिमालय से चली
वो चली तो रुक गई कहते हैं सब हरि द्वार में|
*
आज कल पाखंड लेकर जो जमाने में चलें
ये हक़ीक़त वो हुए मशहूर इज़्ज़तदार में|
*
पैरवी ईमान की होती नहीं इस दौर में
लोग कुछ बैठे दिखे जजमेंट के आसार में|
*
कोई बैशाखी तो खोजो जो लगा दे पार भी
अब यकीं होता सफीने की नहीं पतवार में
*
हौसला रख असलियत में हौसले में जान है
ख़ास तो ये जान होती है नहीं हथियार में|
*
जो उड़ानों में थे उनके पर हैं काटे जा चुके
क़ातिलों की है निज़ामत देखिए संसार में|
****
प्रदीप ध्रुव भोपाली भोपाल म.प्र.
****