चुस्त कलम के साथ समाज सेवा पर लिखा शानदार उपन्यास: अम्मा
इंदौर । नगर की साहित्य संस्था क्षितिज के द्वारा किए गएआयोजन में शहर के ख्यात समीक्षक और लेखक श्री दीपक गिरकर के प्रथम उपन्यास "अम्मा" का लोकार्पण प.पू. बाबा महाराज तराणेकर (डॉ. प्रदीप तराणेकर) के करकमलों से श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति के सभागार में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर प.पू. बाबा महाराज तराणेकरजी ने अपने आशीर्वचन में कहा कि एक बैंकिंग क्षेत्र में रचे बसे व्यक्ति द्वारा दक्षिण भारतीय पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत ’अम्मा’ उपन्यास उत्तम है। वास्तव में समाज सेवा के विविध आदर्श सामने रखता हुआ और समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए अपने मातृत्व को लेकर उपस्थित रहने वाली स्त्री का इसमें बेहतर चित्रण किया गया है।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे ने श्री दीपक गिरकर के साहित्य में योगदान को सराहा और अपने उद्बोधन में उपन्यास "अम्मा" के लिए कहा कि समाज हित में, पारिवारिक मूल्यों के प्रति आस्था और वृद्धाश्रम व अनाथाश्रम का अस्तित्व समाप्त करने के लिए ’अम्मा’ जैसे उपन्यासों की आवश्यकता है। एक स्त्री अर्थशास्त्र से लेकर वात्सल्य तक अपनी भावनाओं का विस्तार कर सकती है और परिवार के साथ ही पूरे विश्व को भी मातृत्व से धन्य कर सकती है।
वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती ज्योति जैन और श्रीमती अंतरा करवड़े ने "अम्मा" उपन्यास पर चर्चा की। श्रीमती ज्योति जैन ने "अम्मा" उपन्यास पर चर्चा करते हुए कहा - स्त्री सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता की नई परिभाषा गढ़ने वाली कथा है "अम्मा"। अम्मा यह शब्द ध्यान में आते ही स्मृति में जो चेहरा आता है वह किसी भी व्यक्ति को समझाने की आवश्यकता नहीं होती। दीपक गिरकर जी का उपन्यास 'अम्मा' मेरे पास आया तो मुझे भी यही लगा कि यह मां/अम्मा की यादों से जुड़ी बहुत भावुक कर देने वाली कथा होगी। क्योंकि मैंने अपने बचपन मे अपनी मां को भी देखा है कि वह जब भी कोई पुस्तक पढ़ती थी,तो रोती जाती थी।जब मैंने पढ़ना शुरू किया था,पढ़ने की समझ आने लगी थी तो पाया कि कुछ भावुक कर देने वाली कहानियां आंखों का खारा समंदर बाहर छलका देती थी। अम्मा हाथ में आते ही लगा कि ऐसी ही कुछ अनुभूति होने वाली है।
खैर पढ़ना शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे पढ़ना आरंभ किया, बस चकित होती गई।
क्योंकि यह कहानी किसी मामूली स्त्री की कहानी नहीं थी। बल्कि एक सशक्त, मेहनती, सच्ची, उर्जावान और निश्छल महिला की कहानी है जो अपनी इच्छाशक्ति से समाज का नक्शा बदल सकती है।वो महिला जिसने गर्भधारण नहीं किया, प्रसवपीड़ा भी नहीं अनुभव की, शिशु को अमृतपान भी नहीं कराया। लेकिन उसमें जो स्त्रियोंचित मातृत्व का अंश है वह उन्हें जगत अम्मा बना देता है।
कहानी शुरू होती है नायक की रेलवे प्लेटफार्म पर होने वाली एक अनजान स्त्री की मुलाकात से। मुसीबत की मारी वह स्त्री नायक को अपनी मां के समान प्रतीत होती है और उन्हें वह अपने घर हैदराबाद ले आता है। स्वाभाविक रूप से ऐसी किसी स्त्री के लिए संबोधन के रूप में अम्मा ही निकलता है और विशेष कर तब, जब वह दक्षिण भारत से संबंध रखता हो। आते ही नायक की गर्भवती पत्नी जानकी को संभालने वाली अम्मा एक सुघड़ गृहिणी प्रतीत होती है।
लेकिन धीरे-धीरे उनके अंदर की एक और सशक्त स्त्री से लेखक दीपक गिरकर जी हमारा परिचय कराना शुरू करते हैं।
जब अम्मा नायक के बच्चों की पेरेंटिंग करती हैं तब लेखक थॉमस अल्वा एडिसन की कहानी के माध्यम से अम्मा का व्यक्तित्व उकेरते हैं। वे बच्चों को इसी तरह की परवरिश प्रदान करती है। बच्चों के भीतर की क्षमता को पहचाना और उसे सकारात्मकता प्रदान करना।
यहां लेखक की पृष्ठभूमि बैंकिंग की होना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि नायक बैंक में कार्यरत है। यहां यह उल्लेखनीय है कि नायक अम्मा के पास बैठता है, उनसे बातें करता है। यह छुपा हुआ संदेश है कि हमें अपने बुजुर्गों को वक्त देना चाहिए। तब अम्मा उनसे बैंक की कार्य प्रणाली की जानकारी लेती है और *स्वयं सहायता समूह* सुनकर अपनी जिज्ञासा प्रकट करती है। जब अम्मा इसे समझती है तो सब्जी वाली बाइयां, घरेलू काम वाली, चूड़ियों का काम करने वाली स्त्रियां आदि को इस बात की जानकारी देकर बचत के लिए प्रेरित करती है। साथ ही वह लड़कियों की शिक्षा की अनिवार्यता पर भी जोर देती हैं।
सेवानिवृत्ति शिक्षिकाओं की सहायता से रात्रि कालीन कक्षाएं प्रारंभ करती हैं।
इस बीच नायक के बॉस श्रीनिवासन साहब भी अम्मा के बारे में सुनते हैं जो उन दिनों काफी परेशानियों के दौर से गुजरते हैं। अम्मा उन्हें अपने घर आने का न्योता देती है। श्रीनिवासन स्वयं भी उनसे मिलना चाहते हैं और अम्मा से मिलने के बाद श्रीनिवासन में सकारात्मक परिवर्तन आता है। उन्हें अम्मा की यह बात प्रभावित करती है कि कमजोर मत बनो, हिम्मत रखो।
इस बीच अम्मा वृद्धाश्रम में जाती है तो पता चलता है कि वहां बुजुर्गों में उत्साह की कमी है। वे उन्हें समझाती है कि उम्र तो एक संख्या है। लेकिन साथ ही वे दुखी होती है कि बुजुर्गों की जगह हमारे दिलों में होनी चाहिए, वृद्धाश्रम में नहीं।
और जब अनाथालय जाती हैं तो वहां के बच्चों की काउंसलिंग करती हैं।
अनाथालय के कैंसर पेशेंट बालक अनिल को वे अपने आत्मविश्वास और अपनी सेवा से ठीक करती हैं। अम्मा की समाज सेवा की यात्रा थमती नहीं और वह दानदाताओं व सेठ लोगों की सहायता से हैदराबाद में कैंसर फाऊंडेशन ट्रस्ट बनवाने का निर्णय लेती है। अम्मा द्वारा सिखाए गए नैतिक मूल्य से हैदराबाद में कई बच्चों का समग्र विकास होता है।
कालांतर में अनिल बहुत अच्छा चित्रकार बनता है तो गोपी छोटे पर्दे पर अपनी कीर्ति फहराता है। के.नागलक्ष्मी राजनीति में जाती है तो कोई बच्चे फुटबॉल खिलाड़ी बनते हैं। अम्मा की यह यात्रा यही नहीं थमती। वे मानसिक दिव्यांग बच्चों के लिए, झुग्गी झोपड़ी के बच्चों के लिए कार्य करती हैं। बाल श्रमिकों को छुड़ाने का कार्य करने के साथ ही उनके मालिकों पर दबाव बनाती है कि अब इनकी पढ़ाई का खर्चा भी उन्हें उठाना होगा। और क्योंकि अब अम्मा का कद इतना बड़ा हो चुका है कि यह सारी बातें संभव हो जाती है। नशाबंदी के लिए भी अम्मा कमर कस लेती है।
लगता है कि अम्मा नहीं होती तो अनाथालय, मजदूरों के, झुग्गी झोपड़ी के बच्चे अपराधिक जीवन जी रहे होते। यहां तक कि वह पति-पत्नी की काउंसलिंग भी करती हैं और उन्हें सुखी और सफल दांपत्य जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है।
सड़क के किनारे कुछ छोटे-मोटे टूल्स से गाड़ियों की रिपेयरिंग करने वाले लड़के छोटू को लोन दिलवाकर उसे आगे बढ़ाने को प्रेरित करती है।
साथ ही वे कई नवाचार भी करती हैं। बच्चों को पढ़ाई का ओवरलोड ना हो, सरकार की योजनाओं का लाभ प्रत्येक व्यक्ति को मिले, अस्पतालों की दुर्दशा पर मीडिया को बुलाकर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी बात ऊपर तक पहुंचाती है।
ऐसा लगता है अम्मा के लिए हर कोई अपना है।
सभी की चिंताएं, अम्मा की चिंताएं।
सभी के दर्द अम्मा के दर्द होते हैं।
इन सब कार्यों के बीच में लेखक ने अम्मा के पूरे परिवार को यात्राएं भी करवाई हैं। यह साबित करता है कि पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों के बीच सुकून के कुछ पल भी अनिवार्य होते हैं। क्योंकि यात्राएं निसर्ग के करीब ले जाती है और नियमित कार्यों की थकान को स्फूर्ति में बदल देती है।
दक्षिण भारत, उत्तर भारत, चारों धाम की यात्राओं का बीच-बीच में वर्णन उपन्यास को रोचकता भी प्रदान करता है। और लेखन को एक विशिष्ट नजरिया देता है।
मेहनती, सच्ची, स्वाभिमानी और अन्याय न होने देने वाली अम्मा स्वयं भी जागरुक है। और इस बीच जब नायक के बच्चे बड़े होने लगते हैं। डॉक्टरी पढ़ते हैं तब अम्मा अपना देहदान का फॉर्म भर देती है। नायक के बच्चों के साथ-साथ बहू के साथ भी उनकी ट्यूनिंग एक अलग ही होती है। यह परिवार के बुजुर्गों और युवाओं के बीच तारतम्य की ओर इशारा करता है। और यही परिवार की खुशहाली का राज़ होता है।
बढ़ती उम्र के साथ वे बेरोजगारी दूर करने के लिए नए-नए कौशल युवाओं के लिए लाने के लिए आईटीआई जैसे संस्थानों को खोलने के लिए संबंधित लोगों को कहती है। और यह अम्मा का ही प्रताप होता है कि उसकी सुनवाई भी होती है। राज्य के मंत्रियों तक भी अम्मा के कार्य पहुंचते हैं और अम्मा को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया जाता है।
अपनी जीवन संध्या में भी अम्मा ऊर्जावान, सकारात्मक रहती है। उन्हें देखकर लगता है मानो अक्षय ऊर्जा का कोई स्रोत उनके अंदर है। उनके शब्द औषधि का काम करते हैं। उनका स्पर्श देवतुल्य रहता है। उनमें थकान नहीं, केवल उत्साह नजर आता है। अम्मा प्रवचन नहीं देती, वह कर्मों में विश्वास रखती हैं।
दीपक गिरकर जी की एक और बात जो उनके इस उपन्यास को विशिष्ट बनाती है। वह यह कि नायक व अम्मा की पृष्ठभूमि हैदराबाद की है। स्वाभाविक रूप से कई बार किसी से बात करते हुए अपनी मातृभाषा के वाक्य मुंह से निकलते हैं। दीपकजी ने इस बात का बहुत ध्यान रखा है कि कई वाक्य अम्मा ने तेलुगु भाषा में बोले हैं। दीपक जी ने नागरी लिपि में तेलुगु भाषा को लिखा है। साथ ही इसका अनुवाद उन्होंने अपने कुछ तेलुगू मित्रों से पूछ कर ब्रैकेट में लिखा है। यह नवाचार बहुत अच्छा है और उपन्यास को एक ऊंचाई प्रदान करता है।
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित होने वाले इस उपन्यास को 32 अध्यायों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। आदरणीय संदीप राशिनकर जी का आवरण शीर्षक के साथ पूरा न्याय करता है।
पूरे उपन्यास को पढ़ते हुए अम्मा की शक्ति को आत्मसात ही किया है। और आत्मसात करते हुए यही कहूंगी कि-
बलहीनंगा उनडकंडी धैर्यन्गा उन्डू (कमजोर मत बनो, हिम्मत रखो)
येप्पडू संतोषशन्गा उन्ड
(हमेशा प्रसन्न रहो)
देवडु मनल्नि समर्थुलनुगा चेस्ते,
मनं प्रजलकु सहायं चेलायि।
(यदि ईश्वर ने हमें सक्षम बनाया है तो हमें लोगों की सहायता करना चाहिए)
उपन्यास के प्रारंभ में ही उसका अंत था, जब अम्मा अपनी देह त्यागती है।
अम्मा को मरणोपरांत भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित किया जाता है। लेकिन अम्मा वह शख्सियत थी, जो जीते जी अपने सद्कर्मों जैसे कई कमल दलों से सुशोभित थीं ।
देह नश्वर है, लेकिन अम्मा के विचारों की सुगंध हमेशा सुभाषित रहेगी, उनके कर्म जीवित रहेंगे। यही अम्मा की ताकत है।
श्रीमती अंतरा करवड़े ने "अम्मा" उपन्यास पर चर्चा करते हुए कहा - "अम्मा" उपन्यास दक्षिण भारतीय अम्मा का जगन्माता हो जाना है।
एक उपन्यास आपके हाथों में आता है और आप पाते हैं कि एक समय का स्वांग आपके समक्ष रचा जा रहा है, जो विविध भाव भंगिमाओं, मुद्राओं और अभिव्यक्ति की आंगिक भाषा के साथ आपके अंतस के साथ संवाद कर रहा है। हम सभी में कुछ तत्व ऎसे होते हैं, जिनके लिए किसी भूमिका की आवश्यकता नही होती। उदाहरण के लिए हम सांस लेते हैं, निरीक्षण करते हैं, सुख दुख अनुभूत करते हैं, जीते हैं और इसी कड़ी में, हम सभी अपने ह्र्दय में अपनी माता को लेकर एक स्थान रखते हैं।
जब भी कोई स्त्री मातृत्व की ओर अग्रसर होती है, तब एक आध्यात्मिक बीज उसमें बोने का प्रयास अवश्य किया जाता है, कि जिस शिशु को आप जन्म देंगी, आपका मातृत्व बस वहीं तक सीमित न रहे। आपका मातृत्व, वात्सल्य, करुणा, स्नेह, ममता, ये सब कुछ अब इस संसार को और अधिक मूल्यवान बनाने के लिए योगदान देने वाला है।
दीपक गिरकर जी का उपन्यास अम्मा, केवल मातृ तत्व का विशद विवेचन या एक व्यक्तित्व के इर्द गिर्द बुना हुआ शाब्दिक प्रपंच नही है। हां, इसमें एक स्त्री में मौजूद अनंत संभावनाओं की झलक, बहुतेरी उम्मीदें जगाती हैं। यह महसूस होता है, कि हम अपनी संभावनाओं को पहचानें, तब आकाश छूना सरल है।
एक बैंकिग क्षेत्र में रचे बसे व्यक्तित्व की कलम से निकला हुआ यह उपन्यास, यदि तटस्थ दृष्टि से देखा जाए, तो मांग और पूर्ति के स्वर्ण नियम से शुरु होता है। यह उपन्यास जीवन के जर्नल में कुछ सुखद, अनपेक्षित और बहुत सारी प्रविष्टियां करता है, जिनमें से उपलब्धियों के रुप में हम इन्हें लेजर में ले जाते हैं। आगे चलकर जब हम अम्मा, बाबूजी, जानकी और उनके परिवार के साथ जीने लगते हैं, तब उनकी अनुभूतियों को हमारे व्यक्तिगत जीवन से जोडकर हमारा लाभ हानि खाता बनता है। और अंत में, मातृ तत्व के प्रति हमारी आस्था के दीपक में आशा का तेल भरकर यह उपन्यास हमारे तलपट या बैलेन्स शीट की असेट्स और लायबलिटीज को बराबर करता है, जीवन में हमें लाभ की ओर ही ले जाता है।
एक निस्सहाय स्त्री, एक मातृ पितृ विहीन दंपत्ति के जीवन में प्रवेश करती है और धीरे धीरे शायद उन सभी का कायाकल्प सा हो जाता है। जो अनुशासन, समय सूचकता, परिश्रम और नियमितता का पाठ हमें अम्मा की दिनचर्या, उनके क्रियाकलापों के चलते समझ में आती है, वह वास्तव में ऎसा आदर्श है जैसे शायद हम सभी हो जाना चाहते हैं। उपन्यास के कथानक के साथ आगे बढ़ते हुए, कई बार लगता है, कि लेखक हमें अम्मा के अतीत को लेकर थोड़ा अधिक बता पाते, क्या कहीं उनके बचपन में इस वृहद सोच के बीज पड़े थे? एक ममतामयी माता, दादी के रुप में अम्मा की भूमिका प्रत्येक पाठक को आश्वस्त करती है, उनके प्रयास, सफलता और उपलब्धियां हमें बल देती हैं।
कहा जाता है, कि जब कठिन समय हो, तब समस्या का समाधान नही सोचा जाता, एक घनी छांव खोजी जाती है और वहां बस समर्पण कर दिया जाता है। फिर आप स्वयं ही निर्देशित होते जाते हैं एक ऎसे पथ पर, जो आपके लिए चुना गया होता है। लगभग इसी विचार की पृष्ठभूमि लेकर यह उपन्यास आपको मानवीय संबंधों के एक ऎसे आनंदमय कोष में ले जाता है, जहां कई बार तो परीकथा वास्तविक होती दिखाई देती है तो अधिकांश स्थानों पर यह विश्वास हो ही जाता है कि जब आपका समय अच्छा हो, स्नेहीजनों का साथ मौजूद हो, तब जीवन सार्थक होता ही है।
जैसा कि लेखक महोदय वित्त, बैंकिंग क्षेत्र से संबद्ध हैं, इस उपन्यास में हमें स्वयं सहायता समूह, खाता खोलने की प्रक्रिया, अंकेक्षण या ऑडिट संबंधी नियम और ऋण संबंधी प्रक्रियाएं विस्तार से और सहज स्वरुप में समझ में आने लगती है। अम्मा का सहजता से महिलाओं के मन में स्थान बनाकर विश्वास हासिल करना, उन्हें सीमित आय के बावजूद नियमित बचत से उन्नति का मार्ग दिखाना और वात्सल्य का निष्पक्ष और अनवरत वर्षाव करना विस्मित भी करता है।
इस उपन्यास से रुबरु होते समय कई बार यह भी सोचने पर विवश होना पड़ा कि क्या वास्तव में इतनी क्षमता किसी भी व्यक्ति में हो सकती है? क्या संघर्ष के बावजूद इतनी अधिक उपलब्धियां पाने के बाद कोई इतना अलिप्त, सरल और परहित को लेकर सचेत हो सकता है? फिर दूसरी दिशा में जाती हुई सोच यह भी कहती है, कि अम्मा हम सभी के मन का, आदर्श, छुपे हुए सपने जैसा जीवन जी रही है। वे सब कुछ पा रही हैं। वे सही अर्थों में "पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥" इस चौपाई को अपने श्वास श्वास में धारण कर चुकी हैं। और यही कारण है कि हमारी अपनी अकर्मण्यता, मजबूरी कहें या फिर आलस्य ही सही, चूंकि हम वैसा नही कर पा रहे, हम अम्मा पर प्रश्न नही उठा सकते। वे तो वो सब कर ही रही हैं जो करना चाहती हैं।
गरीब तबके की महिलाएं हो, स्वावलंबन के लिए कम शिक्षा या क्षमता से जूझती महिलाएं हो, दिव्यांग बच्चे हो या अनाथालय के नन्हे फूल, अम्मा इन सभी के लिए अपने मातृत्व को समभाव से प्रवाहित करती है। वृद्धजन, रोगी और उपेक्षित, असहाय व्यक्तियों के लिए तो वे व्यक्तिगत रुप से सेवा और प्रयास करती ही हैं।
इन्हीं उपलब्धियों के चलते राजनीतिक क्षेत्र की व्यवस्था और परंपराओं से भी उनका परिचय होता है। वे सहज रुप से अफसरशाही, भ्रष्ट तंत्र को लेकर अपने कार्यों से मुखर होती हैं। स्वाभाविक ही है कि निरंतर चलती उनकी ये समाज सेवा पुरस्कृत होती है, उन्हें उनकी उपलब्धियों पर पद्म पुरस्कात तक प्राप्त होते हैं।
एक बारीक सा धागा इस उपन्यास में पकड़ में आता है, जब अम्मा को पद्मश्री मिलने पर उनके जीवन के पिछले पन्नों से कुछ हलचल उनके जीवन में प्रवेश करती है। लेकिन वे तटस्थ होकर इस झंझावात को झेलती हैं।
अम्मा के जीवन के पूर्ण होने के दृश्य से शुरु होता यह उपन्यास धीरे धीरे अम्मा और बाबूजी के जीवन के विविध रंगों को हमारे सामने लाता है। कई बार यह लगता है कि बाबूजी द्वारा हमें कथा के रुप में सुनाया जा रहा यह उपन्यास थोड़ा बहुत उनके जीवन के व्यक्तिगत पक्ष को भी उजागर कर पाता, तो अधिक रोचक हो सकता था।
कुछ ऎसे ही, यात्राओं के वर्णन जिस बारीकी से लिखे गए हैं, उनसे अचानक बाहर आकर किसी अस्पताल के दृश्य में जाना, पाठक के लिए थोड़ा कठिन हो जाता है। अनेक किरदार थोड़े और वैशिष्ट्य के साथ सामने आ सकते थे, उदाहरण के लिए पुत्री अनु के लिए जितना लाड़ इस लेखन में उमड़ता है, वह कोण दोनो बेटों पर थोड़ा संकरा हो गया लगता है, और वैसे यह स्वाभाविक भी है।
लेखन में कई बार संस्मरणात्मक होते हुए लेखक यात्रा वर्णन करना, प्रक्रिया को समझाते हुए थोड़ा शुष्क हो जाना, अनेक किरदार एक ही समय पर प्रस्तुत करते हुए उन्हें एक बार फिर पढ़कर आगे बढ़ने की आवश्यकता उत्पन्न करने जैसी स्थितियां बनती हैं।
कुल मिलाकर एक पुरुष के दृष्टिकोण से एक स्त्री के मातृ स्वरुप की बारीकी से की गई पड़ताल के रुप में अम्मा उपन्यास एक वात्सल्य का, कृतज्ञता का, स्नेह का और आपसी संबंधों की महीन बुनावट का बेहतरीन दस्तावेज है। दीपक गिरकर जी ने बहुत से झंझावात, अवरोध, ऊंच नीच और संवेदनाओं का बवंड़र जैसी स्थितियां अनुभूत की होंगी, तब वे इन भावों को कलमबद्ध कर पाए।
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित यह उपन्यास आ. संदीप राशिनकर की चिरपरिचित शैली के आवरण के साथ, बेहतर मुद्रण और कुछ नगण्य टंकण त्रुटियों के साथ सामने आता है। गिरकर जी व्यंग्य, लघुकथा, प्रेरक आलेख और बैंकिंग संबंधित लेखन के साथ ही उपन्यास विधा में भी अपनी चुस्त कलम के साथ सामने आते हैं, दीपक गिरकर जी आपका स्वागत, और संवेदनाओं के इस सुंदर दस्तावेज के लिए आपको साधुवाद!
कार्यक्रम के आरंभ में अतिथियों द्वारा माता सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण और दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया। सरस्वती वन्दना आशा मुंशी द्वारा की गई। अतिथियों का स्वागत श्री सुरेश रायकवार श्री अश्विनी कुमार दुबे द्वारा किया गया। क्षितिज साहित्य संस्था के अध्यक्ष श्री सतीश राठी का स्वास्थ्य ठीक नहीं होने की वजह से वे कार्यक्रम में नहीं आ पाए, लेकिन उन्होंने स्वागत भाषण टेप करके भेजा था, वही टेप किया हुआ स्वागत भाषण कार्यक्रम में सुनाया गया। कार्यक्रम का संचालन श्रीमती रश्मि चौधरी ने किया। आभार प्रदर्शन श्री सुरेश रायकवार ने किया।
इस अवसर पर श्री दीपक विभाकर नाईक को रक्तदान और समाज सेवा के लिए क्षितिज साहित्य संस्था द्वारा सम्मानित किया गया। साथ ही क्षितिज द्वारा आयोजित त्रैमासिक लघुकथा प्रतियोगिता के पुरस्कार का वितरण भी अतिथियों द्वारा किया गया। इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार श्रीमती रश्मि स्थापक, द्वितीय श्रीमती ज्योति जैन तथा तृतीय स्थान पर भोपाल की लेखिका श्रीमती मनोरमा पंत रही है। कार्यक्रम के दौरान क्षितिज की त्रैमासिक ई पत्रिका का विमोचन भी किया गया जिसमें पुरस्कृत साहित्यकारों की लघुकथा का प्रकाशन भी किया गया है।
कार्यक्रम में शहर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री सूर्यकांत नागर, श्री अश्विन खरे, श्री अश्विनी कुमार दुबे, डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, डॉ. योगेंद्र नाथ शुक्ल, श्री राममूरत राही, श्री मनीष व्यास, श्री सौरभ जैन, श्री प्रदीप नवीन, श्री आर.एस. माथुर, श्री चरण सिंह अमी, श्री हरेराम वाजपई, श्री रमेशचंद्र शर्मा, श्री बी एल तिवारी, श्री अनिल कोथुलाकर, दीपक शिरालकर, श्री मुकेश तिवारी, श्री विजय सिंह चौहान, श्री गोपाल शास्त्री, श्री बी.एल. पानेरी, श्री श्याम पांडेय, श्री सुबोध भोरास्कर, किरण मांजरेकर, श्री दिलीप देशमुख, डॉ. शोभा जैन, चेतना भाटी, सीमा व्यास, डॉ. चंद्रा सायता, अमिता मराठे, आशा मानधन्या, सुधा चौहान, निहार गीते, दीपा व्यास, वन्दना पुणताम्बेकर, निधि सातपुते, निधि जैन, आशा वडनेरे, सुधा चौहान, हंसा मेहता, मंजूषा रेडगांवकर, तनुजा चौबे, वर्षा पाठक, आर.सी. रोनीवाल, श्रीधर कंचन, श्री एच.आर. वर्मा मौजूद थे।
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