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लघुकथा : दिमाग़ी नासूर - सुरेश पटवा, भोपाल


 लघुकथा : 

दिमाग़ी नासूर 

रोहिणी ने सुबह-सुबह एक ख़्वाब देखा कि सातवें आसमान पर दो जोड़ी स्वर्ग-नरक हैं। पाकिस्तानी स्वर्ग-नरक और हिंदुस्तानी स्वर्ग-नरक। पाकिस्तानी स्वर्ग-नरक में अचानक कुछ एक जैसी रूहें पहुँची। रूहों को कर्मों के हिसाब से फैसले के वास्ते न्यायकर्ता के समक्ष पेश किया गया। 

न्यायकर्ता ने एक नज़र डालकर कहा – ये तो काफ़िर रूहें हैं। इनका हम से क्या सरोकार, यहाँ तो मोमिन रूहें आती हैं। 

पेशकार – ये सभी एकसाथ कश्मीर के जन्नत से यहाँ पहुँची हैं। ये इसलिए यहाँ आई हैं क्योंकि पाकिस्तान इस इलाक़े को मुस्लिम राष्ट्र का हिस्सा मानता है। लेकिन इस कश्मीर पर काफ़िर हिंदुस्तानियों का क़ब्ज़ा है। 

न्यायकर्ता पूछा – लेकिन॰॰॰॰॰सिर्फ़ मर्द, इनके साथ औरतें और बच्चे नहीं हैं ?

पेशकार – हुज़ूर, पहली बार खुदाई फ़रमान के हिसाब से ज़िहाद हुआ है। जिहादियों ने काफ़िर जवानों को चुन-चुन कर मारा है। औरतों और बच्चों को बख़्श दिया है, जिन्हें ग़ज़नवी के समय ग़ुलाम बनाकर बग़दाद की मंडी में नीलाम किया जाता था। अब इनको सुलगते ज़ख्म बना कर छोड़ दिए जाता है। 

न्यायकर्ता – परंतु ये रूहें हिंदुस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से आई हैं इन्हें उनके क़ब्ज़े वाले स्वर्ग-नरक में भेज दिया जाय। और हाँ, वे काफ़िर उन जिहादियों को छोड़ेंगे नहीं, उनके लिए जन्नत में हूरों का आरक्षण करके रखो। 

इस तरह जब उन्हें हिन्द के क़ब्ज़े वाले स्वर्ग-नरक भेजा गया तो वहाँ के पेशकार ने अपने सिस्टम पर “डेथ डेली लिस्ट” देखकर बताया कि इन रूहों का अभी टाइम ही नहीं हुआ था। प्रीमेच्योर आ गई हैं। इन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। अब दोनों स्वर्ग-नरक उन्हें नहीं ले रहे हैं। वे त्रिशंकु की तरह उल्टी लटकी हैं। 

रोहिणी ने सुबह की चाय पर परिवार के सामने इस ख़्वाब का जिक्र किया तो उनका बेटा रोहन बोला – मम्मा, आपको लगता नहीं है कि इन कपोलकल्पित आसमानी स्वर्ग-नरक के चक्कर में इंसानों ने पृथ्वी पर लोगों के जीवन को नरक से भी बदतर बनाया हुआ है। आप लोग मुस्लिम राष्ट्र, ईसाई राष्ट्र, यहूदी राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र की राजनीति के चक्कर में हम बच्चों को कैसी सुलगती दुनिया दे रहे हैं। 

पापा बोले – हे आदम की औलाद, अब कुछ नहीं हो सकता। आदमियों को लड़ने के वास्ते कोई न कोई कारण चाहिए। महाभारत में व्यास जी कह गए हैं कि ईर्ष्या कई रूप धरती है। इस ईर्ष्या रूपी मजहबी गीत का मुखड़ा “मेरी संस्कृति श्रेष्ठ दूसरे निकृष्ट” है। अंतरा कई हैं, जैसे “किताब का अंतरा”, “पहनावा का अंतरा, खाना-पीना का  अंतरा है। यह ईर्ष्या मनुष्यों के मस्तिष्क में रिसता दिमाग़ी नासूर है। 

यह ज़मीन सूरज द्वारा रोज़ तपाया जाता एक बड़ा तंदूर है, जिस पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जाती हैं। इन राजनीतिक दावपेंच के आगे सुकरात, कन्फ़्यूशियस, बुद्ध, महावीर, गांधी और सब के सब मानवतावादी फैल हैं। 

@सुरेश पटवा, भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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