काव्य :
चत गांव चलें
अब शहरों से ऊब रहा मन
कहता है- चल गांव चलें,
ताल-तलैया धानी अंचरा
नीले नभ की छांव चलें।
अंगड़ाई ली सुबह-शाम ने
पर्वत बादल बात करें,
स्वर्ण धूप से धुली कुटी हो
जहां थिरकते पांव चलें !
धूप लगे चंदन सी शीतल
चंदा की हो तरुणाई,
मलयानिल में पगी सांस हो
चल उस पीपल छांव चलें!
-डाॅ. सुधा कुमारी
नई दिल्ली
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