पुस्तक समीक्षा -
अतीत की स्मृतियों एवं भविष्य की संभावनाओं को समेटता है , डॉ.रेखा का संग्रह 'उर्मिल की धार'
समीक्षक - श्रीमती शोभा शर्मा - (उपन्यासकार, कहानीकार, कवयित्री, संपादक, आकाशवाणी कलाकार)
हिन्दी काव्य जगत में डॉ. रेखा, जो प्रसिद्ध साहित्यकार, प्रसारक, चित्रकार, नाटककार, अभिनेत्री, पूर्व स. निदेशक आकाशवाणी रहीं हैं।
हिंदी साहित्य में एम.ए. (प्रावीण्य सूची में द्वितीय स्थान) और पीएचडी उपाधि प्राप्त डॉ. रेखा ने अनेक नाटकों, कहानियों, कविताओं, रूपकों और धारावाहिकों की रचना व निर्देशन किया है और पत्रकारिता, मंच, नाट्य लेखन और आकाशवाणी से आजीवन जुड़ी रहीं एवं आकाशवाणी से अभिनय व निर्देशन के लिए पुरस्कार मिले हैं। आप काफी समय से, लिख रहीं हैं परंतु काव्य संग्रह के प्रकाशन का कार्य अब हुआ है। संग्रह का नाम है "उर्मिल की धार"।
इसमें आपने अतीत की स्मृतियों एवं भविष्य की संभावनाओं को समेटते हुए, अपनी 54 कविताओं को सहेजा है। इनमें कुछ लंबी कविताएं भी शामिल हैं। आपकी कविताएं पढ़ने के बाद लगता ही नहीं कि आपका यह पहला काव्य संग्रह है।
इसमें जहां आपने प्रकृति में डूब कर लिखा है, वहीं वैश्विक स्तर की समस्याओं, विसंगतियों, सामाजिक परिस्थितियों, त्रासदियों पर भी आपने कलम चलाई है।आपकी अधिकांश कविताएं कुछ अलग हटकर, भावपूर्ण, गहराई लिए हुए हैं। कविता तत्व का आपको गहराई से ज्ञान है।
इसके पहले आप का एक नाटक "निठल्ले" प्रकाशित हो चुका है।
पहली ही शीर्षक कविता - 'उर्मिल की धार' सन 1931 में अंग्रेजों द्वारा बुन्देलखण्ड के सिंहपुर में किए गए सामूहिक नृशंस हत्याकांड ( जिसे दूसरे जलियांवाला कांड के नाम से भी जाना जाता है।) के बारे में लिखी गई बेहद ही मार्मिक कविता है।
आज से लगभग 95 साल पहले प्रदेश के सिंहपुर में मकर संक्रांति के मेले के अवसर पर सभा कर रहे वीर स्वाधीनता आन्दोलनकारी श्री राम सहाय तिवारी, शहीद ठाकुर हीरा सिंह जी आदि के साथ न जाने कितनी निर्दोष जनता को अंधाधुंध गोलियों से भून दिया गया था। जो भी इसका संज्ञान लेता है, उसकी आत्मा तक दहल जाती है।
आज इस स्थल को चरण पादुका के नाम से जाना जाता है। इसी स्थल पर बुंदेलखंड की उर्मिल नदी रक्तरंजित हुई थी। जिस पर कवयित्री लिखती हैं, 'जो जमीं उत्साह से थी लबालब, खून के धब्बों से घायल,उर्मिल लहू से लाल, रक्त रंजित बह रही॥'
जहां ‘उर्मिल की धार’ कविता बुंदेलखंड के शहीदों को समर्पित है, वहीं इसी संग्रह में कविता ‘गुझिया-सेवइयाँ’ सांप्रदायिक सौहार्द्र को समर्पित है। अपनी प्रथम कविता में पाठक के मन में संवेदना जगाते हुए कवयित्री प्रश्न करतीं हैं
-'यदि राम बन विद्रोही,
प्रत्याघाती,
कर अवज्ञा पिताज्ञा,
पलटवार कर देते,
तब क्या होता?'
सूरज के सात घोड़े- कविता में रवि रश्मियों और सूरज के सात घोड़ों के बहाने बेटियों के सरोकारों की, स्त्री विमर्श की बात है, देखिए, कितना अंतर है बेटे और बेटी संतानों में-
माॅ-पापा,देखो,
सूरज के सात घोड़े,
एक मैं ले लूँ,
न न सारे के सारे घोड़े ,
तेरे दोनों भाइयों के।
'फिर अंत में कवयित्री कहतीं हैं, कि,
'बंट गए तीन-तीन घोड़े,
बचा एक,
कट मरे दोनों उस एक की खातिर।'
बेटी सदैव उतनी ही संवेदना माता पिता के प्रति रखती है जितना बेटा रखे, परंतु अनेक परिवारों में वही पुरानी मान्यता आज भी है,
-'तेरा यहाँ कुछ नहीं,
तू तो है पराई,
जबकि एक गर्भ में पली,
एक ही रक्त और दूध से पोषित।'
बेटी के मन में दर्द दे जाती है। कविता-
शटल- एक स्त्री किस तरह मायके और ससुराल के बीच अपने ही घर में शटल बना कर उछाल दी जाती है, दरकिनार कर दी जाती है। इस कविता का दर्द है ।
शटल, उसके ठहाके, कूड़न की बेटी, में नारी मन की व्यथा प्रदर्शित होती है। ऐसी ही स्त्री विमर्श की और भी कुछ कविताएं हैं।
1-दो पालों के बीच फेंकी जाती शटल,
दादी की सोन चिरैया?
अपना घर? कौन सा घर?
किसका घर?
2- विदा से पहले ही पोटली बांध रखे गए
उसके ठहाके,
छुड़ा लिया सास ने खिलखिलाना।
3- लेकर दराती,
उखाड़ दिया पत्थर,
पारस पत्थर, मिली सौगात,
बंट गई बेटों के बीच बराबर-बराबर।
4- फगुनी,
दशरथ मांझी के द्वारा लिखी गयी अपनी पत्नी के गम में छैनी हथौड़ी से पहाड़ पर लिखी कविता,
क्योंकि वह उससे बिछुड़ कर वहीं पहाड़ में अपनी सांसें खो चुकी थी इसलिए इलाज के अभाव में कोई बेमौत नहीं मरे, पहाड़ काट कर बना दी सड़क।
कहीं कवयित्री को स्त्री का दर्द सालता है, तो कहीं रोष भी है, कविता 'जलकुकड़े' की कुछ पंक्तियाँ,-
'अकेली नार, क्यों नहीं गिड़गिड़ाती,
नहीं जोड़ती हाथ,
घमंडी कहीं की,
जाएगी कहाँ?
गाँजा शराब में डूबे उगलते हैं विष,
जलकुकड़े।'
इसी तरह 'उर्मिल की धार' 'आखिर क्यों'? 'नई इबारत', 'नदी', 'पहरुए' 'नीम की जिज्जी' जैसी अनेक कविताओं में प्रकृति का मानवीकरण भलीभाँति किया गया है। आपने प्रकृति से एकाकार होकर अनेक कविताएं रची हैं। जैसे 'शरद', 'हेमंत', ओस, पातों के सुर,' 'धनक धराकाश'।
इसी संग्रह में 'पिंजरा', 'कब'? 'बारिश और बिट्टी' कविताओं में अधिकारों के लिए जमीन तलाशती आज की नारी की दुखद स्थितियों का अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में वर्णन है। पर अंत एक सा, बेहद दुखद। इनमें डरी सहमी राजकुमारियाँ पूछ रहीं हैं, कि भेड़ियों से खाली जंगल कब होगा?
जो पाठक के मन को द्रवित करता है। अपनी कविताओं में अकल्पित मोड़ ला देना, कविताओं को विशिष्ट ऊंचाइयों तक ले जाना रचनाकार की खूबी है। जो अनेक कविताओं में दृष्टिगत होती है।
आपका शब्द संयोजन गज़ब का है। पढ़कर मन में छायावादी युग के चार स्तंभों में से सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला एवं महादेवी वर्मा की कविताओं की याद बरबस ही हो आती है।
जिन्होंने अपनी अनूठी लेखनी से कविता को अलग ही निखार दिया। 'मत देना अग्नि परीक्षा'
जैसे- टिप टिप टप टप,
छनन छनन छन,
बारिश की बूंदों के संग-संग।'
कम शब्दों में 'दग्ध है धरा' 'सौगात' में कर्तव्यों की ओर ध्यान दिलाते हुए अपनी बात कहती हैं,-
'बटोही, बिरछा रोपा?
बटोही निरुत्तर!
काटा और सिर्फ काटा।'
कहीं रचनाकार की नायिका अपने फ़ौजी से शिकायत करते हुए शब्दों को कविता का रूप देती है, 'दहके पलाश, महके उपवन, द्वार बजाए साँकल, फागुन कब आओगे?'
कुछ कविताओं में प्रेरणा के सुर सजते हैं-
तब आतुर नदीश की लहरें,
तुमको हृदय बसा लेंगी।
सागर की गर्जन में तब,
एक तुम्हारा भी सुर होगा!
वह पोखर पानी,
उसने बहने का सपना देखा॥'
जहां कविता 'चाँद झरा' मानो एक सरगम है।
रिदम में डूबा हुआ एक गीत है, जिसे पढ़ते हुए मन मयूर नृत्य कर उठता है और बार बार पढ़ने का औत्सुक्य उत्पन्न करता है।
यथा- '
चाँद के झरने पर संग संग मुस्कुराऊँ,
चल दूँ क्षितिज की ओर पतवार वीणा
मैं बजाऊँ छप छपा छप॥'
वहीं रचनाकार 'शरद' शीर्षक कविता में ऋतु के वर्णन में प्रकृति से एकाकार होते हुए परम्पराओं को भी पोषित करती है।
'शरद पूर्णिमा' शीर्षक से कविता में पर्यावरण एवं अपने प्रदेश के प्रसिद्ध स्थानों का वर्णन करते हुए पाठक को आस-पास के अंचल घुमा देती हैं और परिवेश से लगाव का परिचय देतीं हैं।
'शरद पूर्णिमा' में अंतस की गहराई में अंकुराते स्वप्नों को साथी के साथ बांटते हुए रचनाकार की नायिका वर्णन करती हैं कि पूनम की रजनी में मन कहाँ कहाँ जाने के लिए उमग रहा है, क्या क्या निहारना चाहता है!
इसी संग्रह में दो कविताएं होली पर हैं जिसमें अपनी विदुषी वामा सखियों के साथ होली खेलने का भाव विभोर करता वर्णन है।
समीक्षा में एक कविता 'उत्सव जारी है' का मार्मिक जिक्र करना चाहती हूं, जिसमें इतिहास के आईने से पाठक रूबरू होता है जो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी कहीं न कहीं चुनौती देता है।
अंत में कुछ बेहद मार्मिक विषयों पर कविताएं हैं जो वैश्विक विसंगतियों पर हैं जो अपने सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में मानवता के सामने प्रश्न चिन्ह हैं। यथा- 'रूह की मौत' 'हम कहाँ' 'दुखद अंत' 'जयकारे' और 'गिद्ध' कविताएं मन में करुणा भर देतीं हैं। 'गिद्ध' कविता में मार्मिक प्रश्न करते हुए पूछते हुए रचनाकार लिखती है,
-'चीखता उछलता प्रश्न,
कितने गिद्ध थे वहाँ?
एक!
तुमने कहा,'नहीं दो''
दूसरे के हाथ में था कैमरा'
पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त रिपोर्टर, गिद्ध एवं अंतिम साँसे लेती एक मरणासन्न बच्ची को लेकर लिखी गयी कविता है।
रिपोर्टर के सभी तमाम अच्छे कार्यों को नकार दिया गया, इस एक प्रश्न पर कि
'बच्ची का क्या हुआ?
'मरता छोड़ आए,
फोटो खींचने में मग्न रहे,
'मानवता?'
'जीवन मूल्य?'
'धिक्कार!
उस इथोपियाई नन्ही बच्ची, जिसका फोटो खींचने के बाद वह पत्रकार उसे वहीं छोड़ आया था। रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने वाले, उस समाज सेवक रिपोर्टर को भी मानवता को शर्मसार करने के जुर्म में छोड़ा नहीं गया।
अंत में एक ऐसी कविता 'ओटा बेंगा से संग्रह का समापन है जिसमें वैश्विक परिदृश्य में उठाई गयी बीसवीं सदी की शुरुआत में न्यूयार्क के ब्रोंक्स में घटी इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटना पर कविता लिखी गई है जो मन को द्रवित कर देती है।
इसमें कांगो के जंगलों रहने वाले एक मबूती अफ्रीकी इंसान 'ओटा बेंगा' की दुखद ज़िंदगी का वर्णन किया गया है। जिसे दास प्रथा के अंतर्गत चंद रुपयों के बदले खरीद कर चिड़ियाघर में प्रदर्शन की वस्तु बना कर पशुओं के साथ रखा गया था।
बाद में उसने आत्महत्या कर ली।
'तुम्हारे जाने का शोक नहीं दिखा कहीं,
पर उस दिन,
पिग्मी ज़मीन कराही थी बुरी तरह,
आसमान रोया था फूट-फूट,
फटे थे कुछ ज्वालामुखी।
यह अपने आप में अनूठी, मानवीयता की पक्षधर एवं एक बेहद संवेदनशील कविता है। जो रचनाकार ने अपने कोमल हृदय का परिचय देते हुए लिखी है।
अंत में आपकी कविताओं में स्त्री और समाज की स्थिति, परिस्थिति, उनकी उपेक्षा, मानसिक कशमकश, भावनात्मक अंतर्द्वंदों को सूक्ष्म तरीके से बखूबी उकेरा गया है।
कविताएं प्रायः गेय न होकर अतुकांत/नई कविता के रूप में हैं, इनका भावपक्ष बेहद उन्नत है। बिम्ब, ध्वन्यात्मकता, शब्द संयोजन इन्हें प्रभावी बनाता है। कविताएं उत्कृष्ट कोटि की हैं।
पाठक को कहीं-कहीं दुरूह भी लग सकती हैं। इस संग्रह की भूमिका में एक कविता - 'श्रद्धांजलि लाखा बंजारे' और उसकी पृष्ठभूमि का जिक्र आया है पर वह कविता अनुक्रम में नहीं मिली। अनुक्रम में कविताओं में क्रमांक न होने से शायद यह भूल हुई हो।
यह कविता न ही पढ़ने के लिए पुस्तक में कहीं है। हो सकता है शायद प्रकाशन के दौरान छूट गई हो।
यह कह सकती हूँ कि इस काव्य संग्रह को कालांतर में भी पढ़ा जाएगा।
ये कविताएं अवश्य ही साहित्य जगत को समृद्ध करने वाली हैं। पाठक इस काव्य संग्रह को बहुत पसंद करेंगे।
कवयित्री को बधाई एवं असीम शुभकामनाएं देते हुए मैं आशा करती हूँ कि आगे भी उनके काव्य संग्रह आते रहेंगे।
समीक्षक - श्रीमती शोभा शर्मा - (उपन्यासकार, कहानीकार, कवयित्री, संपादक, आकाशवाणी कलाकार)
गोस्वामी सदन, नीलकंठ नगर, रेडियो कॉलोनी के पीछे, पुराना पन्ना नाका, छतरपुर।
पिन 471001