मन ही है बन्धन , मन ही मुक्ति का साधन
हमारे द्वारा मन के जीते जीत हैं और मन के हारे हार हैं । हमारा मन एक दर्पण की तरह है । वह अगर स्थिर और स्वच्छ आदि रहता है तो उसमें रह-रह कर आत्मा की झलक दीख सकती है। वह चंचल कामनाओ और विक्षेपों आदि से यदि भरा हुआ मन होता है तो फिर उसमें कुछ भी नहीं दीख सकता हैं । अतः सघन ध्यान आध्यात्मिकता के ज्ञान आदि से ही मन में धीरे-धीरे आत्मज्ञान का द्वार खुलता है । हम किसी भी काम,क्षेत्र आदि में विजयी होंगे या पराजित,सफल या असफल आदि यह पूरी तरह से हमारें पर निर्भर है । हम यदि यह सोचोगे और अपने मन में यह विश्वास करेगे कि आप जीत जाओगे तो यकीन मानिए कि जीत आपकी ही होगी, आपको जीतने से कोई नहीं रोक सकता कोई भी नहीं, लेकिन इसके विपरीत यदि आप सोचोगे और यह मानकर चलोगे कि यह काम मुश्किल है और मैं हार जाऊंगा तो आपको हारने से कोई नहीं रोक सकता हैं । वह इतिहास के महान से महान काम इंसान की इसी सोच पर हुए हैं क्योंकि सफलता और असफलता की कहानी पहले हमारे मन में लिखी जाती है और बाद में वो साकार रूप लेती है। हमारे द्वारा मन को जोड़ने से ही भावों में शक्ति का संचार होता है । वह मन को जोड़ने से ही मन का सारा भार निर्भार होता है । वह मन को जोड़े बिना भक्ति में शक्ति कहां से आती है । वह मन को साथ में लेकर चले बिना हमें मंजिल कहां मिल पाती है । हमारे शरीर और वाणी का एक मात्र संचालक मन ही होता है । हमारे द्वारा मन को सरल, तरल बनाना होगा जैसे कोई निश्छल बालक होता है । हमारा मन एक ऐसी फैक्ट्री है जिसमें हम जैसा सही से भावनाओं रूपी कच्चा माल डालेंगे उसी अनुरूप वह परिवर्तित हो कर पक्का माल निकलेगा। अतः हमको यह ज्ञात रहे कि इच्छाओं की शुद्धता ही मन की सकारात्मक शक्ति है ।हम मन को सही दिशा में साधें और इच्छित फल पाएँ यह वांछित है ।यह मन ही बन्धन हैं व मन ही मुक्ति का साधन है ।
- प्रदीप छाजेड़ , बोरावड़