सुरेश पटवा की “हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग”,गोकुल सोनी की “ऐसे सुधर पाए जे कक्का” और शिवांश सरल की “फूल झरे हैं वन-उपवन” लोकार्पित
भोपाल । तुलसी साहित्य अकादमी की सृजन श्रंखला-47 के अंतर्गत तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों का लोकार्पण एवं विमर्श दुष्यंत स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय में डॉक्टर मोहन तिवारी आनंद की अध्यक्षता, वरिष्ठ राजनीतिज्ञ रघुनंदन शर्मा के मुख्य आतिथ्य और प्रसिद्ध नाट्यशास्त्री राजीव वर्मा के सारस्वत आतिथ्य में संपन्न हुआ।
डॉक्टर मोहन तिवारी आनंद ने तीनों रचनाकारों की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए “हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग” को सिनेमा के इतिहास पर एक गंभीर कृति निरूपित किया। “ऐसे सुधर पाए जे कक्का” को बुंदेली बोली में सामाजिक चेतना जागृत करने वाली किताब बताया, वहीं “फूल झरे हैं वन-उपवन” को प्रकृति ले वर्णन का सुंदर काव्य संकलन कहा।
मुख्य अतिथि रघुनंदन शर्मा ने तीनों पुस्तकों को अपने-अपने क्षेत्र की अच्छी कृति बताया। उन्होंने सिनेमा की शुरुआत को सांस्कृतिक क्रांति बताया। सुरेश पटवा एक साधक की तरह साहित्य रचना करते हैं। शिवांश जी ने कविताओं के माध्यम से वन उपवन में पुष्प वर्षा की।
साहित्य मनीषी देवेन्द्र दीपक ने सिनेमा के उस दौर को सिनेमा का महान युग बताया। लेकिन आज सिनेमा में मूल्य हीनता का जो बोलबाला है। उससे हमारी संस्कृति का विनाश हो रहा है। लेखकों को इस बात में ध्यान देना चाहिए। शिवांश सरल को एक विधा पर कार्य करके विशेषज्ञता हासिल करना चाहिए। गोकुल सोनी लोक बोली की अकादमी स्थापित करना चाहिए।
सारस्वत अतिथि राजीव वर्मा ने “हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग” को उस दौर के निर्माता-निर्देशकों कालजयी निरूपित करते हुए इसे उत्तम प्रयास बताया। सिनेमा के योगदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है।
सुरेश पटवा ने साहित्य और सिनेमा के अंतरसंबंधों प्रकाश डालते हुए कहा कि आज़ादी के बाद इन दोनों विधाओं ने समाज संरचना में जो योगदान दिया है, उसी को तीन पुस्तकों के माध्यम से आदरांजलि स्वरूप यह लेखन किया है। समीक्षक फ़िल्म पत्रकार विनोद नागर ने “हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग” की विषय वस्तु पर प्रकाश डालते हुए सुरेश पटवा की बहुविध रचना प्रक्रिया को भी रेखांकित किया। उन्होंने इस कृति को हिंदी सिनेमा साहित्य में एक मील का पत्थर बताया। लेखक की इसी श्रृंखला में प्रकाश्य दो किताबों, “कालजयी कलकारों की दास्तान” और “स्वर्णयुग की स्वर लहरियां” का भी ही जिक्र किया।
गोकुल सोनी ने बुंदेली साहित्य के हवाले से मस्ती और ठिठोली को रेखांकित किया और कहा कि इस संकलन में इसी प्रवृत्ति को साधते हुए कुछ सामाजिक संदेश देने की कोशिश की है। अपने बुंदेली कविता संग्रह की पृष्ठभूमि पर प्रभाव डालते हुए कहा कि लोकभाषा बुंदेली का अपना एक विशेष सौंदर्य और मिठास होती है। समीक्षक डॉ संगीता भारद्वाज ने “ऐसे सुधर पाए जे कक्का” को बुंदेली शैली में उत्तम व्यंग्यात्मक कृति बताया। उन्होंने कुछ कविताओं का उल्लेख करते हुए गोकुल सोनी की विलक्षण काव्य प्रतिभा और बुंदेली पर पकड़ का उल्लेख किया। लोकभाषा के साहित्य में धर्म, साहित्य और ग्रामीण संस्कृति की सौंधी महक के साथ ही जनसापेक्षधरता भी होती है।
शिवांश सरल ने अपनी कृति और रचना प्रक्रिया पर विस्तृत प्रकाश डाला। उन्होंने चिन्हित रचनाओं का पाठ किया। समीक्षक वीरेंद्र कुमार श्रीवास्तव ने “फूल झरे हैं वन-उपवन” को स्वाभाविक कविताओं का गुच्छ कहा। कुछ कविताओं का उल्लेख कर उनकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला।
कार्यक्रम का सरस संचालन डॉक्टर सत्यदेव सोनी “सत्य” ने किया। सरस्वती वंदना श्रीमती सुधा दुबे ने एवं स्वागत वक्तव्य रमेश भूमरकर ने दिया और आभार प्रदर्शन शिव कुमार दीवान ने किया।
गोकुल सोनी