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व्यंग्य : "आज फिर जीने की तमन्ना है... गुजरा हुआ जमाना " - विवेक रंजन श्रीवास्तव ,भोपाल



 व्यंग्य : 

"आज फिर जीने की तमन्ना है... गुजरा हुआ जमाना "

 - विवेक रंजन श्रीवास्तव ,भोपाल

      

      एक तरफ़ तकनीक की  उड़ान है, दूसरी ओर रिश्तों की रीढ़ टूट चुकी है।  हमारी पीढी, इस सबके बीच, उस ट्रेन में सवार है जिसे न कोई स्टेशन समझ आया, न दिशा, बस ज़िंदगी की परिवर्तन "यात्रा" पर हम तेजी से बढ़े बढ़ते जा रहे है।

वो दिन भी थे जब "चिट्ठी आई है..." सुनते ही आँगन में उत्सव सा माहौल बन जाता था। अब तो "ब्लूटिक" नहीं दिखे तो ब्रेकअप हो जाता है। "कहीं दीप जले कहीं दिल..." की भावना अब बिजली के बिल की तरह बोझिल हो गई है। सारा प्यार अब "नेटफ्लिक्स ऐंड रिलैक्स" के डिब्बे में पैक होकर सीरियल बन चुका है। हमने इस परिवर्तन को जिया है।

"हम हैं राही प्यार के, फिर मिलेंगे चलते-चलते" ,  ऐसा लगता था मोहल्ले के नुक्कड़ पर किसी दिन पुराने दोस्त मिल ही जाएंगे। पर अब तो दोस्त फेसबुक पर मिलते हैं, और वहीं ब्लॉक भी हो जाते हैं! वर्किंग पति पत्नी तक चैट पर मिलते हैं। पहले मोहल्ला घर जैसा लगता था, अब घर भी होटल जैसा लगने  लगा है।

कभी हम मिट्टी में लोट-पोट होते हुए "छोटा बच्चा जान के..." सच्चे बचपन का आनंद लेते थे, अब बच्चे हैं जो आईपैड के टचस्क्रीन को ही माँ की गोद समझ बैठे हैं। रायपुर में एक छोटी स्कूली बच्ची  ने  बीच सड़क पर आईफोन के लिए ऐसी जिद की कि ट्रैफिक जाम हो गया,पुलिस बुलानी पड़ी । गिल्ली-डंडा, सांप-सीढ़ी, सब हमारे संग  इतिहास बन रहा है। अब बचपन  भी मोबाइल खेल रहा है।  रोते बच्चे को चुप कराने अब मां उसे मोबाईल पकड़ा रही हैं!"

"ना जाओ सैंया छुड़ा के बैयाँ..." जैसी मोहब्बत अब सोशल मीडिया के स्टेटस में सिमट गई है "इन अ कांप्लिकेटेड रिलेशनशिप विद कंफ्यूज़न"। पहले इश्क में खत चलते थे, अब स्क्रीनशॉट वायरल होते हैं। "कुछ तो लोग कहेंगे..." वाली चिंता अब ट्रोलिंग के डर में तब्दील हो गई है।

हमारी पीढ़ी ने देखा है कि कैसे "बारिश के बहाने" छत पर चढ़ कर "काग़ज़ की कश्ती" तैराई जाती थी। 

 "एक लड़की भीगी-भागी सी..." अब एसी की हवा में फ्रिज जैसी हो गई है। घरों की छतें अब टावरों से घिरी हैं और खिड़कियाँ बस विंडो XP तक सीमित हैं।

"प्यार हुआ इकरार हुआ है..." जैसे रिश्तों का दौर गया। अब प्यार ऑनलाइन डेटिंग ऐप पर होता है, और 'डेट' से पहले 'डेटा पैक' चेक होता है। पहले पंडित जी गोत्र पूछते थे, अब युवा पूछते हैं " पासवर्ड शेयर करोगे ?"

"जीना यहाँ, मरना यहाँ..." जैसी बातें अब ई एम आई के टर्म्स और कंडीशन में लिखी जाती हैं। पहले ज़िंदगी एक त्यौहार थी, अब 'लाइफस्टाइल' बन गई है। रिश्ते अब रिश्ते नहीं रहे, वो 'नेटवर्क सिग्नल' बन गए हैं कमज़ोर पड़ते ही कट जाते हैं!

और राजनीति?  "दिल तो पागल है..." वाली मासूमियत अब "जुमलों की बारात" बन चुकी है। पहले नेता जनता के बीच बैठते थे, अब जनता उनके सोशल मीडिया हैंडल पर DM भेजती है , ट्वीट पर समस्या हल हो जाए तो राष्ट्रीय खबर बन सकती है। 

पर आशा का दीपक अभी बुझा नहीं। जैसे पुराने रेडियो पर अचानक "लग जा गले..." बज जाए और दिल प्रसन्न हो जाए, वैसे ही शायद भविष्य में एक दिन हम फिर से मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू को महसूस करेंगे। "आने वाला पल जाने वाला है..." – ये पंक्ति अब और गहराई से समझ आती है। जो बीत गया, वह केवल इतिहास नहीं, भविष्य का मार्गदर्शक भी है।

हमें फिर से सीखना होगा  "जिंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम..." बस उन्हीं की याद से इंसान बनता है। घर में बुज़ुर्ग अब एल्बम बन चुके हैं, और बच्चे इंस्टाग्राम रील। हमें उस पुल को संभालना है जो इन दो दुनिया को जोड़ता है।

"थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है..."  यही वास्तविकता है। हम जितना पीछे मुड़ कर अतीत से जुड़ कर भविष्य देखेंगे, अगली पीढियों को उतना बेहतर बना पाएँगे।

"चलते-चलते मेरे ये गीत याद रखना..."  क्योंकि हमारी तेज परिवर्तन यात्रा के हर मोड़ पर  एक सीख है।

"कितना बदल गया इंसान?"

इतना कि अब हर 'लाइक' में स्नेह की जगह प्रमोशन की गंध आने लगी है। फिर भी, दिल के किसी कोने में बिनाका गीतमाला आज भी बजती है, कहीं तारों भरी रातों में कोई पुरानी साँस फिर से आह भरती है... और हम मुस्कुरा उठते हैं।

विवेक रंजन श्रीवास्तव 

भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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